04 जून 2016

सफलता-असफलता के पैमाने पर चलती प्रेम-यात्रा

प्रेम को लेकर लोगों के कांसेप्ट बड़े ही विचित्र हैं. उसमें भी पहले प्यार को लेकर और भी गजब धारणाएँ बनी हुई हैं. प्यार एक बार ही होता है. पहले प्यार के बाद प्यार होता ही नहीं. पहला प्यार ही आखिरी प्यार होता है वगैरह-वगैरह. प्रेम को लेकर इतनी रूढ़िवादी सोच अपनी कभी नहीं रही. हमेशा से मानना रहा है कि यदि व्यक्ति जिंदादिल है, खुशमिजाज है, सकारात्मक सोच वाला है तो उसे सदैव प्यार होगा, सबसे प्यार होगा. हमने भी सबसे प्यार किया. कई-कई से प्यार किया. हर उम्र में प्यार किया. ये और बात है कि वर्तमान सोच के चलते प्यार का अंजाम विवाह नहीं बना. इसके चलते ये भी तो नहीं कहा जा सकता कि प्यार असफल रहा. आखिर प्रेम के सफल, असफल होने का पैमाना क्या है? क्या सिर्फ विवाह ही किसी प्रेम की सफलता है? यदि यही अंतिम सत्य है तो वाकई हमारा प्रत्येक प्रेम असफल कहा जायेगा. लगातार असफलता के बाद भी हम प्रेम करते रहे या कहें कि हमसे भी प्रेम करने वाले मिलते रहे. इसे मिलती रही पढ़ा जा सकता है.

कुछ ऐसा ही उन दिनों हुआ जबकि हम प्रेम की कई-कई सीढियाँ चढ़ते हुए अपने कैरियर की सीढ़ियाँ बनाने में लगे थे. जैसे प्रेम में सफलता नहीं मिल रही थी वैसे ही कैरियर भी असफल होने का ठप्पा लगाने को आतुर था. उससे लगभग रोज ही सामान्य सी औपचारिक मुलाकात हो जाती थी. सामान्य सी बातचीत, सामान्य सा हंसी-मजाक. एक दिन उसने समाचार-पत्र में लिपटी एक डायरी देते हुए उसमें अपने बारे में कुछ लिखने को कहा. आग्रह जैसा कुछ नहीं, निवेदन जैसा कुछ नहीं, प्यार जैसा भी नहीं कह सकते मगर दोस्ती जैसा भी समझ नहीं आया. कुछ अधिकार सा समझ आया, उसके कहने में, उसके कुछ बताने में. डायरी अब उसके हाथों से गुजरती हुई हमारे हाथों में थी. दो-चार दिन इसी सोच-विचार में गुजर गए कि कुछ लिखने को आखिर हम ही क्यों? और यदि हम ही तो फिर लिखा क्या जाये? लिखने का अर्थ कुछ और न समझा जाये. बहरहाल, जो मन में था, जो दिल में था, लिखा. समय गुजरता रहा. बातें गुजरती रहीं. मुलाकातें गुजरती रहीं.

अपने सामने उसको खुद में सिमटते देखा. अपने सामने उसे खुलकर बिखरते देखा. अपने सामने हमारे लिए उसे निश्चिन्त देखा. अपने सामने हमारे लिए उसे चिंतित देखा. प्यार का उमड़ना देखा. प्यार का सिमटना देखा. कदम-कदम आगे बढ़ते-बढ़ते दोनों का कदम-कदम पीछे जाते देखा. मजबूरियाँ दोनों तरफ से थी, जो स्पष्ट रूप से सामने दिख रही थी. उसके सामने सामाजिक बंधन जैसी स्थिति थी तो हमारे सामने कैरियर जैसी. डर उधर भी था, डर इधर भी था. और इसी डर में, इसी बढ़ते-सिमटते में उसका चले जाना हुआ. उसके जीवन में उसके साथी का आना हुआ. वर्षों गुजर गए. दोस्ती आज भी दिल में है. दोस्ती से कहीं अधिक आज भी दिल में है. इस छोर पर सबकुछ है, उस छोर पर क्या, कितना है पता नहीं. फिर वही बात कि आधुनिक मानकों पर प्रेम असफल रहा. एक और प्रेम कहानी हमारी नजर में पूर्ण पवित्र रही भले ही समाज की नजर से अधूरी रह गई हो. 

1 टिप्पणी:

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