कहा जाता है कि बंद मुट्ठी लाख की,
खुल गई तो खाक की. कुछ ऐसा ही हो रहा है अब देश की विश्वप्रसिद्ध शैक्षणिक संस्थान,
जेएनयू के साथ. सरकारी विरोध की मंशा के साथ आयोजित किये गए बरसी कार्यक्रम के
साये में जो कुछ भी हुआ वो किसी से छिपा नहीं है मगर इस पर्दादारी के पीछे से
जो-जो कुछ अब सामने आ रहा है वो अवश्य ही विश्व-स्तरीय विश्वविद्यालय की साख पर
सवाल उठाता है. देश की बर्बादी के नारे, आतंकी को शहीद बताये जाने के बाद
गिरफ़्तारी का, आरोप-प्रत्यारोप का जो दौर चला उसके बाद से प्याज के छिलके की तरह
एक-एक करके अनेक परतें उघड़ने लगी. राष्ट्रद्रोह के आरोपी छात्र की गिरफ़्तारी से
लेकर जमानत पर उसकी रिहाई के बीच बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ जिसे किसी भी रूप में महज
षड्यंत्र नहीं कहा जायेगा वरन स्तरीय विश्वविद्यालय की स्तरीयता में गिरावट अवश्य
समझा जायेगा. आरोपी छात्र की रिहाई के पूर्व तो उसे नायक बनाये जाने का कारनामा
अनेक लाल सलाम वाले विद्यार्थी संगठन तो कर ही रहे थे साथ ही देश के अनेक
बुद्धिजीवी भी उसे नायक बनाये जाने की कवायद करते देखे जा रहे थे. शर्मसार करने
वाली बात तो ये रही कि देश के अनेक राजनैतिक दल, संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी
उसके समर्थन में खड़े दिखे. ये लोग महज इतने पर ही शांत रहने को तैयार नहीं थे और विश्वविद्यालय
अपनी साख के संकट को महसूस भी कर रहा था.
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आरोपी छात्र की जमानती रिहाई के तुरंत
बाद का घटनाक्रम किसी भी रूप में सशक्त और स्वस्थ लोकतंत्र की कहानी नहीं कहता है.
राष्ट्रद्रोह के आरोपी को नायक बनाये जाने का शिगूफा चलाया जा रहा था. इसी शिगूफे
में उस कथित नायक के द्वारा जहाँ सरकार को, प्रधानमंत्री को असफल बताया गया वहीं
सेना को बलात्कारी घोषित करवा दिया गया. आरोप-प्रत्यारोप के दौर में बंद मुट्ठी
लगातार खुलती रही तो उसके भीतर से कभी कंडोम मिले तो कभी विश्वविद्यालय में अशालीन
पोस्टर्स का लगा होना सामने आया. कभी सेना को बलात्कारी बताया गया तो उसी के साये
में आरोपी छात्र को यौन शोषण मामले का आरोपी भी बताया गया. छात्र-छात्राओं के
अंतरंगता के चित्र सामने आने लगे तो कई-कई स्त्रोतों से संस्थान के भीतर अन्य अवैध
संक्रियाओं की संलिप्तता की तस्वीरें भी वायरल होने लगीं. ड्रग्स के मामले, यौन
शोषण के मामले, दैहिक संबंधों की उन्मुक्तता के मामले, देश-विरोधी क्रियाओं के
लगातार चलते रहने के मामले एक-एक करके विश्वविद्यालय के नाम को अर्श से फर्श पर
लाने का काम करने लगे. इन घटनाओं के अलावा जैसा कि जेएनयू के विद्यार्थियों को
दिल्ली में रिहाईश की समस्या आने, मकान मालिकों द्वारा मकान खाली करवाए जाने, मकान
न दिए जाने की घटनाओं के साथ-साथ बसों, ऑटों, रिक्शा वालों द्वारा भी भेदभाव किये
जाने की खबरें सामने आई हैं. ये किसी भी रूप में सुखद स्थिति नहीं कही जा सकती है.
चंद विद्यार्थियों की इस तरह की संलिप्तता ने समूचे संस्थान पर ऊँगली उठा दी है.
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यहाँ समझना कठिन है कि ऐसा किया
जाना सही है अथवा इस पर्दादारी का बने रहना ही उचित था? देश-विरोधी प्रदर्शन के
बाद, आतंकी के समर्थन में लगते नारों के बाद की कार्यवाही उचित रही या अनुचित? लगातार
अमर्यादित टिप्पणियाँ करने, देश के सैनिकों, सेना पर सवाल उठाने से राष्ट्रद्रोह के
आरोपी छात्र के जमानत पर रिहा किया जाना उचित रहा या अनुचित? अपने-अपने वर्ग के,
अपने-अपने संगठन के अपने-अपने विचार हो सकते हैं किन्तु एक सत्य तो ये है ही कि इस
घटना से देश के साथ खड़े लोग और देश के विरोध में खड़े लोग नजर आ गए हैं. देश-हित
सदैव सीमा पर बन्दूक लेकर खड़े होना नहीं और देश-विरोध का अर्थ देश के अन्दर आतंकी
गतिविधि को अंजाम देना मात्र नहीं है. विश्वविद्यालय में हो रही गतिविधियाँ जिस
तरह से एक के बाद एक करके सामने आ रही हैं उन्हें देखकर लगता है कि विश्वविद्यालय
में एक बहुत बड़ा वर्ग भीतर ही भीतर देश को खोखला करने का कार्य कर रहा था, देश को
दीमक की तरह चाट रहा था. ये और बात है कि देश की अखंडता, सहिष्णुता, एकता को
विदेशी हमलों ने, विदेशी आक्रान्ताओं ने खंड-खंड नहीं कर पाया तो एक संस्थान के
कुछ विद्यार्थियों द्वारा ऐसा किसी भी सूरत में नहीं किया जा पाता. बावजूद इस निश्चिंतता
के विश्वस्तरीय शैक्षिक संस्थान की भीतरी गतिविधियों के गोपन के अगोपन होने ने
जेएनयू की साख पर बट्टा लगाया है.
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