सम्पूर्ण विश्व में एक तरफ बंधुत्व की, स्नेह की बात की जा रही है, हमारे देश
में भी लगातार ऐसी बातों के विकास पर जोर दिया जा रहा है, इसके बाद भी उसी तेजी से
नफरत का माहौल बनाया जा रहा है. तेजी से बनते इस नफरत-युक्त माहौल को बढ़ाने का काम
उस वर्ग के द्वारा भी किया जा रहा है जिसे समाज में समरसता लाने वाला, भाईचारा
बढ़ाने वाला, प्रेम-सौहार्द्र फ़ैलाने वाला माना जाता रहा है. ऐसे वर्ग में शिक्षक,
साहित्यकार, लेखक, कलाकार, पत्रकार, खिलाड़ी आदि शामिल माने जाते हैं. ऐसा माना
जाता है कि इन क्षेत्रों के अपने-अपने विशेषज्ञ लोग, नामचीन लोग अपने कार्यों से,
अपनी बातों से लोगों को एकजुटता का बोध सहजता से कराते हैं; समाज में
शांति-भाईचारे का सन्देश फैलाते हैं. वर्तमान में विगत कुछ वर्षों से इस तरह की
बनी-बनाई धारणा खंडित सी हुई है. इन क्षेत्रों के लोगों ने भी अपने आपको सरकारों
के अनुसार, राजनैतिक दलों के हिसाब से खाँचों में विभक्त कर लिया है. कुछ ऐसा देश
में गुजरे हालिया घटनाक्रमों के बाद और तेजी से स्पष्ट हुआ है.
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हैदराबाद में विश्वविद्यालय के निष्कासित छात्र की आत्महत्या के बाद तो ऐसी
धारणा को स्पष्ट बाल मिला है कि अब ऐसे वर्गों का, समूहों का भी निष्पक्षपूर्ण
व्यवहार नहीं रह गया है, जिन्हें सामाजिक सशक्तता के लिए अग्रणी माना जाता रहा है.
निष्कासित विद्यार्थियों के पक्ष में विश्वविद्यालय का कोई एक भी शिक्षक तब तक विरोधी
स्वर में सामने नहीं आया, जबकि एक छात्र के आत्महत्या कर लेने के बाद उसकी लाश पर
राजनीति शुरू नहीं हो गई. आखिर निष्कासन से लेकर उसकी मृत्यु तक वहाँ के शिक्षक
क्यों चुप रहे? अब जिस तरह से उस छात्र की गतिविधियाँ, उसकी जाति को लेकर कई-कई
बिंदु सामने आये हैं उसके अनुसार नई तरह की बहस की गुंजाईश दिखने लगी है. क्या
किसी भी व्यक्ति को महज इस कारण आरोप मुक्त मान लिया जाये कि उसने आत्महत्या कर
ली? क्या किसी व्यक्ति के द्वारा आतंकी का समर्थन करने को महज इसलिए स्वीकार लिया
जाये कि आतंकी मुस्लिम था? क्या किसी निष्कासन को महज इस कारण गलत ठहराया जाये कि
निष्कासन की कार्यवाही में मंत्रियों की संलिप्तता पाई जा रही है? क्या किसी
व्यक्ति की आत्महत्या पर इस कारण राजनीति की जानी चाहिए क्योंकि वो कथित तौर दलित
घोषित किया जा रहा है?
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ऐसा नहीं कि किसी की मौत पर असंवेदित हुआ जाए मगर किसी की मौत पर, किसी की
हत्या-आत्महत्या पर संवेदना-असंवेदना का स्पष्ट अन्तर महज इस कारण दिखाई देने लगता
है क्योंकि देश के नामचीन लोग, राजनेता जाति, धर्म, स्थान, माहौल देखकर किसी की
मौत पर अपनी उपस्थिति दिखाने लगे हैं. हैदराबाद के ठीक पहले देश मालदा से जूझ रहा
था, पूर्णिया से दो-चार हो रहा था, जहानाबाद में उत्पात मचाया जा रहा था, पेट्रोल
डाल कर युवक जिन्दा जलाया जा रहा था, पठानकोट में हमारे जवान शहीद हो रहे थे,
बुन्देलखण्ड में किसान लगातार आत्महत्या कर रहे थे, आरक्षण के चलते अच्छे अंक आने
के बाद भी नौकरी से वंचित युवती मौत के आगोश में जा रही थी, आतंकी गणतंत्र दिवस पर
धमाके करने की योजना बनाते पकड़े जा रहे थे मगर न तो किसी ने पुरस्कार वापस करने की
सोची, न किसी ने अपनी डिग्री लौटाने की बात कही, न कोई साहित्यकार आँसू बहाने आया,
न कोई राजनेता धरना देने को आगे आया, न किसी शिक्षक ने अपना पद त्यागने की धमकी
दी. आखिर ऐसा बस एक युवक के लिए ही क्यों? आखिर दलित के नाम पर, मुस्लिम के नाम पर,
भाजपा-विरोध के नाम पर राजनीति करके समाज में इन लोगों द्वारा कौन सा सन्देश दिया
जा रहा है. अंत में एक बात कि यदि उस छात्र द्वारा मुस्लिम आतंकी का समर्थन करना
जायज था तो फिर दिल्ली रेप कांड के नाबालिग बलात्कारी का विरोध किसलिए किया जा रहा
है? इंसान दोनों ही हैं, जीने का अधिकार दोनों को ही है, स्वतंत्रता का अधिकार
दोनों को है, मानवाधिकार की माँग दोनों करते हैं. ऐसे में किसी एक व्यक्ति के लिए
कई-कई नामचीन लोगों का जमावड़ा दोहरे चरित्र का परिचायक है. अब वक्त आ गया है जबकि
समाज को ऐसे दोहरे चरित्र, दोहरे चेहरे वाले लोगों का बहिष्कार करना चाहिए क्योंकि
ऐसे चेहरों के चलते उस छात्र का कहना सत्य निकल रहा है कि हर घर में याकूब मेमन
पैदा होगा.
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