दिसम्बर का आरम्भ जहाँ सामाजिक क्षेत्र
में एड्स दिवस, विकलांग दिवस
से होता है वहीं राजनैतिक क्षेत्र में इसका आरम्भ अयोध्या मामले की चर्चा से होने लगता
है. समूची राजनीति को अयोध्या, राम,
भाजपा आदि के इर्द-गिर्द केन्द्रित कर दिया जाता है. इसके उलट बार-बार देखने
में आया है कि छह दिसम्बर को एकबारगी भाजपा की तरफ से भले ही कोई बयान न दिए जाएँ
किन्तु गैर-भाजपाई दलों द्वारा दिसम्बर आते ही राम मंदिर मामले को, राम नाम को, अयोध्या प्रकरण को
उठा दिया जाता है और फिर पूरी राजनीति को राममय बनाये जाने का आरोप भी लगाया जाने लगता
है. तथाकथित रूप से धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाने वाले राजनीतिज्ञ इन्हीं आरोपों की
आड़ लेकर भगवा आतंकवाद जैसी शब्दावली को चलन में बनाये रखना चाहते हैं. राजनीति में
जबरन राम को दृष्टिगत बनाये रखने की मंशा गैर-भाजपाई दलों और उनके आनुषांगिक संगठनों
की दिखती है. इसके पीछे उनका मूल मंतव्य देश भर के गैर-हिन्दुओं में, मुसलमानों में हिन्दुओं
का, भाजपा का
खौफ पैदा करके, अप्रत्यक्ष
रूप से राजनीति में मुस्लिम वोट-बैंक को स्थापित करना होता है.
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देखा जाये तो देश की वर्तमान राजनीति
में राम को स्थापित करने में भाजपा से ज्यादा बड़ी और महत्त्वपूर्ण भूमिका कांग्रेस
सहित अन्य दलों की भी रही है. राजीव गाँधी द्वारा राममंदिर का ताला खुलवाया जाना, मुलायम सिंह द्वारा
निहत्थे कार-सेवकों पर गोलियाँ चलवाना, सभी गैर-भाजपाई दलों का भाजपा-विरोधी होने से ज्यादा राम-विरोधी, हिन्दू-विरोधी हो
जाना, इस्लामिक
आतंकवाद के समानान्तर भगवा आतंकवाद की कपोल-कल्पना करना, मुस्लिम तुष्टिकरण
की आड़ में आतंकियों की मदद करना आदि ऐसी घटनाएँ रही हैं जिनके कारण जाने-अनजाने राजनीति
में राम का, हिन्दू धर्म
का प्रवेश हो गया. ऐसा होने के पीछे के कारणों को बिना जाने राजनीति के राममय, हिन्दूमय होने का
आरोप लगाने से पहले राजनीति के मुस्लिममय होने के आरंभिक बिंदु को भी देखना होगा. यदि
विगत साथ वर्षों से अधिक के समय में चली आ रही मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति राजनीति के
अल्लाहमय होने की, मुसलमानमय
होने की पहचान नहीं है तो दो दशकों के आसपास का अयोध्या मामला, राम मंदिर मुद्दा
कहाँ से राजनीति को राममय,
हिन्दूमय साबित करता है?
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अब जबकि कुछ वर्षों पहले उच्च न्यायालय
द्वारा अयोध्या में राम मंदिर मामले में स्पष्ट फैसला सुना दिया गया है, जिसके
चलते देश भर की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों के दिलों पर साँप लोट गया. उनकी समझ
में ही नहीं आ रहा है कहा क्या जाये, किया क्या जाये? अदालत के उस फैसले
को हिन्दू-मुस्लिम की हार-जीत से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. इस फैसले को केवल इस दृष्टि
से नहीं देखा जाना चाहिए कि यह हिन्दुओं के पक्ष की बात करता है वरन् इसको इस दृष्टि
से भी देखे जाने की आवश्यकता है कि देश में एक धरोहर पर चली आ रही बेवजह की बहस को
भी विराम दिया है. उस फैसले से हिन्दुओं को इसकी राहत जरूर मिलने की सम्भावना थी कि
उन्हें अब इस बात की जलालत नहीं सहनी पड़ेगी कि वे सिद्ध करते घूमें कि उनके भगवान राम
अयोध्या में ही, उसी स्थान
पर जन्मे थे; हिन्दुओं को इस बात से भी राहत मिलने की आशा थी कि उन्हें राम के नाम
पर गाली नहीं दी जायेगी; उन्हें देश का विभाजन करने वाला और मुसलमानों की मस्जिद पर कब्जा
करने वाला नहीं कहा जायेगा. हिन्दुओं को इस बात की सम्भावना नजर आई थी कि अब बेधड़क
कहा जा सकता है कि राम इस देश की सांस्कृतिक विरासत हैं क्योंकि फैसला आने तक तो डर
लग रहा था कि कहीं राम को भारत के अलावा किसी और देश का सिद्ध न कर दिया जाये और बाबर
अथवा मीर जाकी को ही इस देश का नागरिक घोषित कर दिया जाये. ऐसे में यदि जागरूक मुसलमान
लोग मिल-बैठ कर सुलझाना चाहेंगे तो देश हित में अच्छा रहेगा अन्यथा उन्हीं के द्वारा
सिद्ध करने का प्रयास होगा कि वे लोग इस देश की सांस्कृतिक विरासत का नहीं अपितु विदेशी
आक्रान्ताओं की जुल्म भरी विरासत को पालना-पोसना चाहते हैं. उनके लिए एक संदेश कि देश
की मुख्य धारा में शामिल हों और देश की सांस्कृतिक धरोहर को, विरासत को सहेजने
में अपना भी योगदान दें. राम सभी के हैं, वे समाजवादियों के भी हैं, जनताधारियों के भी
हैं, लाल झंडे
वालों के भी हैं तो मीडिया वालों के भी हैं, बस समझने-समझने का फर्क है. हर वर्ष छह दिसम्बर आते ही
गैर-भाजपाई दलों का, मीडिया का इस मुद्दे को हवा देना देश में, समाज में हिन्दू-मुस्लिम
विभेद को बनाये रखना है, तुष्टिकरण की राजनीति को सुदृढ़ करना है, इससे बचने की
आवश्यकता है.
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सभी को याद होगा कि पहली बार 1992 में इस विवाद के
आने के बाद मुसलमानों ने इस पर बहुत आपत्ति की थी कि उनको बाबर की औलाद के रूप में
पुकारा जा रहा है. अब वही स्थिति फिर खड़ी होने वाली है, यदि बाबर मुसलमानों
के लिए पूज्य नहीं है, बाबर को मुसलमानों
ने अपने पूर्वज के रूप में नहीं स्वीकारा है तो फिर अब वे एकमत से, तहेदिल से अदालत के
इस फैसले का सम्मान करते हुए राम जन्मभूमि पर राम का भव्य मंदिर बनने में सहयोग कर
देश की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने में अपना भी योगदान देते किन्तु ऐसा नहीं हो
सका. इस विवाद का हल निकालने, अदालत का सम्मान करने वाले लोग ही विवाद को और
विवादित बनाए रखने की दृष्टि से उच्चतम न्यायालय में चले गए. मामला सुलझने के
स्थान पर वैसे ही विवादित बना हुआ है. अदालत को जो करना था वो कर चुकी, अब मुसलमानों को यह
सिद्ध करना है कि राम का वनवास यथावत बना रहे अथवा विदेशी आक्रमणकारी बाबर को इस देश
की नागरिकता दे दी जाये? हमें याद
रखना होगा कि हमारे लिए कोई भी इस कारण स्तुत्य नहीं हो जाता कि वह हमारे धर्म का है, हमारी जाति का है.
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