29 नवंबर 2015

रिश्ते सुधारो मगर सहजता से


पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध सुधारने की कवायद तबसे चलनी शुरू हो गई थी, जबसे कि उसका जन्म हुआ था. आये दिन किसी न किसी कदम के द्वारा ऐसा होता दिखता है. सम्बन्ध सुधार के दौर में पाकिस्तान की तरफ से बारम्बार सुधार प्रक्रिया के साथ-साथ इसको बाधित करने का उपक्रम भी चलाया जाता रहा है. एक तरह शांति-वार्ताएं चलती हैं तो दूसरी तरफ अशांति की हरकतें की जाने लगती हैं. एक तरफ बस चलाकर आपसी सम्बन्धों के आदान-प्रदान का रास्ता खोला जाता है तो दूसरी तरफ उसी शांति के रास्ते से कारगिल में घुसपैठ कर दी जाती है. पाकिस्तान का अपना इतिहास रहा है लगभग नित्य ही भारत के लिए समस्याएँ पैदा करने का. कभी युद्ध के द्वारा, कभी घुसपैठ के द्वारा, कभी आतंकी हमलों के द्वारा, कभी संयुक्त राष्ट्र में बेवजह कश्मीर के मुद्दे को उठाने के द्वारा. इस जोर-आजमाइश के चक्कर में कई-कई बार हमारे देश की तरफ से भी राजनीतिज्ञ विवादस्पद बयान दे बैठते हैं अथवा कोई असंवदेनशील कदम उठा बैठते हैं.
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पाकिस्तान की बात ही क्या की जाये, यदि अपने देश के इन नेताओं की, जिम्मेवार लोगों की ही बात की जाये तो ताजा घटनाक्रम में ही दो बातें ऐसी हुई हैं जिन्हें राष्ट्रीय एकता, सद्भाव की दृष्टि से कतई सुखद नहीं कहा जा सकता है. इसमें पहली घटना भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच आरम्भ करने वाली रही और दूसरी घटना जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला द्वारा दिया गया बयान रहा है. पहले चर्चा भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच सीरीज के सम्बन्ध में, दोनों देशों के मध्य सम्बन्ध सहज हों, मधुर हों इसको स्वीकार करने वाले पर्याप्त संख्या में हमारे देश में मौजूद हैं. इसके साथ ही ऐसे लोग भी बहुत हैं जो खेलों के द्वारा, सांस्कृतिक वातावरण के द्वारा, साहित्य-कला के द्वारा दोनों देशों के संबंधों-रिश्तों को सुधारने की वकालत करते हैं, उसे स्वीकारते हैं. हालाँकि समस्त देशवासी ऐसा शत-प्रतिशत रूप से नहीं स्वीकारते हैं, बहुत से लोग युद्ध को एकमात्र और अंतिम विकल्प के रूप में स्वीकारते हैं तथापि दोनों देशों के बीच क्रिकेट मैच सीरीज के आरम्भ करने के समय का लगभा सम्पूर्ण देश ने एकसुर से विरोध किया है. सोचने की बात है कि एक तरफ देश मुंबई हमले में मारे गए सैकड़ों लोगों को याद कर रहा था, सैनिकों के साथ-साथ अनेक मासूम, निर्दोष नागरिकों को श्रद्धांजलि दे रहा था और उधर दूसरी तरफ सम्बन्ध सुधारने की कवायद में मगन रहने वाले उसी दिन मैच खेलने पर सहमति व्यक्त करने में लगे हुए थे. ये अत्यंत शर्मनाक स्थिति तो है ही साथ ही अत्यंत अपमानजनक भी है. ये अपमान उन तमाम शहीदों का है जो आतंकी हमले का शिकार हुए; ये अपमान उन सैनिकों का है जिन्होंने अत्यल्प संसाधनों में उन आतंकियों का सामना किया जो अत्याधुनिक हथियारों से लैस खूनी खेल खेलने में लगे हुए थे.
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इस अपमानजनक स्थिति से अभी पूरी तरह उबरना भी नहीं हो पाया था कि जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला का बयान कि ‘पाकिस्तान अधिग्रहीत कश्मीर (पीओके) पाकिस्तान का ही हिस्सा है’ तथा ‘हमारी पूरी सेना भी पाकिस्तान के आतंकवादियों को नहीं रोक सकती, जब तक कि पाकिस्तान न चाहे’ एक तरह से राष्ट्रद्रोह वाला ही है. उनके बयान के ठीक एक दिन पहले ही नवाज शरीफ का बयान आता है कि पाकिस्तान बिना शर्त भारत से बातचीत करने को तैयार है और इस मौके को भुनाने के बजाय इसी देश के एक नेताजी इस तरह का बयान देकर मनोबल गिराने का कार्य करने में लग जाते हैं. ये स्पष्ट है कि भारतीय सेना का मनोबल किसी एक व्यक्ति, एक राजनीतिज्ञ के बयान से गिरने वाला नहीं है मगर ऐसे बयानों की आड़ में ही वे ताकतें जो देश में अशांति फ़ैलाने का, उपद्रव करने का मंसूबा संजोये बैठी रहती हैं, सक्रिय हो जाती हैं. भले ही अभी पीओके वाला मसला सुलझा नहीं हो, भले ही अभी हमारा देश पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को जड़ से न उखाड़ सका हो मगर इसका अर्थ कदापि ये नहीं कि कोई पूर्व मुख्यमंत्री ऐसे विवादस्पद बयान जारी करे. आज सम्पूर्ण विश्व इस बात को स्वीकारने लगा है कि भारत देश में आतंकी घटनाओं के पीछे पाकिस्तान का हाथ है और इससे भी कोई इंकार नहीं करता है कि भारतीय सेना महज इस कारण खामोश रही है कि हमारे देश की सरकारों ने सदैव शांति-वार्ताओं के द्वारा हल निकालना चाहा है. सेना की ख़ामोशी को कमजोरी समझने की भूल न तो पाकिस्तान को करनी चाहिए और न ही भारत में बैठे पाकिस्तान-प्रेमियों को ऐसा करने की छूट है.
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यहाँ समझने की आवश्यकता है कि हमारा देश पाकिस्तान से किस दृष्टि से दोस्ताना सम्बन्ध बनाने को आतुर है? पाकिस्तान की तरफ से क्या-क्या हरकतें होती रही हैं, होती रहती हैं, ये अलग विषय है किन्तु शांति की राह बनाने के लिए, रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए इतनी आतुरता, आकुलता भी आवश्यक नहीं कि जिस समय हम अपने शहीदों को श्रद्धांजलि दे रहे हों उसी समय पूरी बेशर्मी सबकुछ भूल जाने को आमादा हैं. एक राष्ट्र के साथ सम्बन्ध बनाने को लेकर यहाँ के राजनीतिज्ञों की तुष्टिकरण की राजनीति इतनी भी सहज न हो कि समूची सेना को चंद आतंकियों के सामने पस्त बताया जाने लगे, देश का एक हिस्सा पाकिस्तान का ही बताया जाने लगे. केंद्र सरकार को ऐसे मामलों में कठोरता, सशक्तता, दृढ़ता से निपटने की आवश्यकता है. यदि ऐसा करने में वो असफल रहती है तो देश की शांति-एकता-सद्भाव को पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के साथ-साथ तुष्टिकरण की नीति अपनाने वाले नेताओं से भी खतरा हो जायेगा. क्रिकेट हो या फिर कोई और मसला सभी में देश की अखंडता का, देश की सेना के मनोबल का, देशवासियों की भावनाओं का सम्मान किया जाना अनिवार्य होना चाहिए.

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