14 अक्तूबर 2015

पुरस्कार वापसी विशुद्ध राजनैतिक शिगूफा

हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों को दूर करने की दिशा में कार्य करते हुए एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक साहित्यकार शहीद हो गए. बहुतों को इस शहीद शब्द पर आपत्ति हो सकती है, होनी भी चाहिए क्योंकि शहीद शब्द इतना मामूली नहीं कि किसी की मौत के लिए इस्तेमाल किया जाये. यहाँ भी हमारा मकसद किसी भी रूप में उक्त दो मौतों या कहें कि हत्याओं को शहीद या शहादत उच्चारित करने  का नहीं वरन वर्तमान दौर की मानसिकता को सामने लाना है. एक साहित्यकार की हत्या वर्तमान केन्द्र सरकार के कार्यकाल में होती है और दूसरे सामाजिक कार्यकर्ता की हत्या पिछली केन्द्र सरकार के कार्यकाल में होती है. इन दो मौतों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं सिवाय इसके कि ये दोनों ही हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों को दूर करने का कार्य करते थे. इससे क्या अंदाज़ा लगाया जाये कि ये हिन्दू धर्म के वफादार थे अथवा हिन्दू धर्म के मानने वालों के प्रति वफादार थे? ऐसा इस कारण क्योंकि यदि ये सामाजिक हित में कार्य कर रहे होते तो न केवल हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों के विरुद्ध कार्य करते वरन सभी धर्मों के अंधविश्वासों को दूर करने की चेष्टा करते. ऐसा कुछ भी करने का कोई प्रमाण इनके कार्यों से नहीं मिलता है. चलिए ये स्वीकार लिया जाये कि ये किसी न किसी रूप में सिर्फ और सिर्फ हिन्दू धर्म का भला चाहते थे और इसी कारण से इस एक ही धर्म के अन्धविश्वास मिटाना चाहते थे तो उन साहित्यकार महोदय द्वारा हिन्दू देव की मूर्ति पर पेशाब करने का दाम्भिक बयान देना किस तरह से अन्धविश्वास को दूर करता? संभव है कि वे सामाजिक कार्यकर्ता भी कुछ इसी तरह के क़दमों से अन्धविश्वास को दूर करने की चेष्टा करते होंगे?
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वे दोनों किस तरह से हिन्दू धर्म के अन्धविश्वास को दूर करने में लगे थे, ये वे दोनों ही जानते होंगे किन्तु सिर्फ हिन्दू धर्म के प्रति उनके ऐसे रवैये को देखकर स्पष्ट है कि वे अन्धविश्वास दूर करने की आड़ में सिर्फ और सिर्फ हिन्दू धर्म के विरुद्ध अपने कलुषित विचार सामने लाते होंगे. अब जबकि वे दोनों उन्हीं की तरह के धार्मिक कट्टर व्यक्तियों अथवा संगठन का शिकार हो गए हैं तो उनके अनुवर्ती अनेकानेक ऐसे लोग जो किसी न किसी रूप में खुद को हिन्दू धर्म के विरुद्ध खड़ा मानते हैं, उनकी मौत पर राजनीति करते दिखने लगे हैं. यहाँ उन दोनों व्यक्तियों को कट्टर कहने के पीछे का भावार्थ महज इतना है कि अपने विचारों को किसी दूसरे पर थोपना भी एक तरह की कट्टरता है. ऐसे लोग भूल जाते हैं कि वे धार्मिक अन्धविश्वास दूर करने के नाम पर अपने अन्धविश्वास को, अन्धविचार को शेष समुदाय पर थोप रहे हैं. उनके विचारों को, उनके विश्वासों को स्वीकार न करने पर वे कभी हिन्दू देवी-देवताओं को दारू पिलाते हैं, कभी उन पर थूकने का काम करते हैं, कभी उन पर पेशाब करने जैसा बयान देते हैं. बहरहाल, हिन्दू धर्म के विरुद्ध कदम उठा-उठाकर, लेखनी चला-चला कर अपनी आजीविका कमाने वाले, अपना पेट पालने वाले लोग उन दो व्यक्तियों की मौत के बहाने से हिन्दू धर्म पर, केन्द्र सरकार पर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधने का मन बनाये बैठे थे. ‘बिल्ली के भाग्य से छीका टूटने’ की भाँति ही ऐसे लोगों को दादरी का इखलाक कांड हाथ लग गया. एक साहित्यकार, एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक मुस्लिम व्यक्ति की हत्या ने साहित्यजगत को हिलाकर रख दिया. अवसर की तलाश में बैठे लोगों ने देश में कथित रूप से शांति को, सहिष्णुता को खतरा बताते हुए साहित्य अकादमी से प्राप्त सम्मान-पुरस्कार को लौटना शुरू कर दिया.

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पुरस्कार वापसी के कदमों के दौरान सभी ने साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता और दादरी कांड को आधार बनाया. पुरस्कार वापसी के द्वारा चर्चा में जल्द से जल्द आने की होड़ में ये लोग भूल गए कि सामाजिक कार्यकर्ता की हत्या पिछली केन्द्र सरकार के समय हुई थी; ये लोग भूल गए कि यदि एक दादरी कांड से देश की शांति, सहिष्णुता, एकता, सौहार्द्र आदि नष्ट हो रहे हैं तो देश में इससे पहले की सरकारों में और भी भयानक-भयानक काण्ड हुए हैं जिन्होंने एक व्यक्ति को नहीं कई-कई परिवारों को मौत की नींद सुलाया है, कई-कई शहरों को उपद्रव की आग में झुलसाया है. दरअसल पुरस्कार वापसी के ज़रिये इन लोगों का हमला हिन्दू धर्म पर है, केन्द्र सरकार पर है और साथ ही साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पर भी है. कथित रूप से साहित्यकारों की वामपंथी बिरादरी को एक हिन्दीभाषी का अकादमी का अध्यक्ष बन जाना फूटी आँख भी नहीं सुहा रहा है. ऐसे में साहित्यकार की हत्या और दादरी कांड ने उनके मन की मुराद पूरी कर दी. इसके अलावा ये लामबंदी गैर-राजनैतिक होने के बाद भी विशुद्ध राजनैतिक है. यदि पुरस्कार लौटाते इन साहित्यकारों को वर्तमान केन्द्र सरकार से इतनी ही परेशानी है, इतनी ही समस्या है तो पुरस्कार लौटाने के साथ-साथ वे सारी सुविधाएँ लेना भी बंद करें जो केन्द्र सरकार की कृपा-दृष्टि से प्राप्त हो रही हैं/उसकी कृपा से प्राप्त की जाती हैं. दरअसल इन साहित्यकारों का मकसद अपने इस विरोध से वैश्विक स्तर पर केन्द्र सरकार को बदनाम करना है; उस सरकार के पक्ष में अपनी भक्ति दर्शाना है जिसने उन्हें पुरस्कार-सम्मान से नवाजा था. यहाँ सवाल उठता है कि क्या जिस साहित्यकार की मौत से, जिस सामाजिक कार्यकर्ता की हत्या से, जिस दादरी कांड से पुरस्कार वापस करते इन साहित्यकारों का दिल पसीज रहा है, उनकी सहायता के लिए इनमें से कौन-कौन से साहित्यकार जागे? ये समझना होगा कि साहित्य अकादमी अपने आपमें स्वायत्त संस्था है न कि सरकार के नियंत्रण में, ऐसे में अकादमी के पुरस्कार वापस करने के पीछे की नीयत स्पष्ट समझ आती है. ऐसे साहित्यकार पुरस्कार वापसी के द्वारा अकादमी के अध्यक्ष पर, केन्द्र सरकार पर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर, हिन्दू धर्म पर हमला कर रहे हैं, वैश्विक स्तर पर सरकार की नहीं वरन सम्पूर्ण देश की छवि ख़राब कर रहे हैं. कम से कम ऐसे लोग साहित्यकार तो नहीं ही कहे जा सकते जो समाज में विभेदकारी स्थिति को पैदा करके संवेदना का नाटक कर रहे हैं. ऐसे लोगों को यदि दादरी के इखलाक की हत्या का दर्द है और विदर्भ या बुन्देलखण्ड के किसानों की आत्महत्याओं का दुःख नहीं है तो वे साहित्यकार नहीं सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक दलों के प्रवक्ता सरीखे हैं, ये साहित्यकार नहीं दुराग्रही राजनैतिक समर्थक हैं. 
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