अपने बच्चों को
अच्छे से अच्छे स्कूल में, अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाने का सपना प्रत्येक
माता-पिता का होता है और इसके लिए माता-पिता किसी भी हद तक मेहनत करने को तैयार
रहते हैं. भारतीय समाज में अंग्रेजी भाषा के बढ़ते चलन ने, दिन प्रतिदिन खुलते नए-नए
आलीशान कॉन्वेंट स्कूल्स की चकाचौंध ने, अंग्रेजी भाषा के प्रति बढ़ती जनमानस की
ललक ने, ज्ञान की प्राप्ति का एकमात्र केंद्र अंग्रेजी माध्यम के स्कूल्स को मान
लेने ने, ज्यादातर हिन्दीभाषी विद्यालयों की गिरती दशा और वहाँ के शिक्षकों की
उदासीनता ने भी अभिभावकों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की तरफ आकर्षित किया
है. इस आकर्षण से कोई भी वर्ग अछूता नहीं रह गया है. अमीर हो या गरीब, शिक्षित हो
या अशिक्षित, नौकरीपेशा हो या फिर व्यापारी, मालिक हो या फिर मजदूर, शहरी हो या
फिर ग्रामीण या फिर किसी भी वर्ग का व्यक्ति सबके मन में अंग्रेजी शिक्षा के
प्रति, अंग्रेजी भाषा के प्रति, कॉन्वेंट स्कूल्स के प्रति एक अजब तरह का लगाव
देखने को मिलता है.
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इसमें कोई बुराई भी
नहीं दिखाई देनी चाहिए, आखिर प्रत्येक व्यक्ति को इतनी स्वतंत्रता तो है ही कि वो
कहाँ और किस स्तर से शिक्षा प्राप्त करे; कहाँ, किस संस्थान से, किस माध्यम से
अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाए. इसके बाद भी कई बार लगता है जैसे कहीं न कहीं समाज
का एक वर्ग ऐसा है जो ऐसे विद्यालयों में, इस तरह के आलीशान, चकाचौंध भरे
संस्थानों में अध्ययन के लिए अपने बच्चों को भेजे जाने का सपना लिए ही रह जाते
हैं. देखा जाये तो ऐसे बड़े-बड़े, चमकते संस्थानों में शिक्षा के नाम पर जबरदस्त
व्यापार चलने में लगा हुआ है, जहाँ मोटी, भारी-भरकम फीस वसूलने के अलावा डोनेशन के
नाम पर भी अनाप-शनाप धन वसूली की जाती है. कोई व्यक्ति इसका जुगाड़ कहीं न कहीं से
कर भी ले तो फिर प्रवेश के नाम पर दूसरी तरह के खेल शुरू हो जाते हैं. अभिभावकों
का साक्षात्कार, उनकी शिक्षा-दीक्षा, उनकी पढ़ाई का स्तर, बच्चों को पढ़ा पाने की
उनकी क्षमता, पारिवारिक रहन-सहन का माहौल, आसपास का वातावरण आदि-आदि ऐसा कुछ होता
है जिसके द्वारा लगता नहीं है कि ये संस्थान अध्ययन केंद्र के नाम पर संचालित किये
जा रहे हैं.
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आज भी हमारे समाज
में ऐसे परिवार बहुतायत में हैं जिनका आर्थिक स्तर अत्यंत निम्न स्तर का है; जिनकी
पढ़ाई-लिखाई का स्तर लगभग अशिक्षा के आसपास ठहरता है; जिनका रहन-सहन आम साधारण
परिवार के रहन-सहन से भी निम्न स्तर का है. ऐसे में उनके बच्चों का ऐसे विद्यालयों
में अध्ययन हेतु प्रवेश ले पाना लगभग नामुमकिन ही रहता है. यदि किसी तरह ऐसे
परिवार के अभिभावक कहीं न कहीं से, मेहनत से, मजदूरी से, किसानी आदि से धन का
प्रबंध करके अपने बच्चों का प्रवेश ऐसे विद्यालयों में करवा देते हैं तो भी उनके
सामने उनको घर में पढ़ाये जाने की समस्या उत्पन्न हो जाती है. इन हालातों में बच्चे
या तो असफलता की स्थिति में विद्यालय से निकाल दिए जाते हैं या फिर पारिवारिक
मजबूरी के चलते स्वतः ही बाहर निकल जाते हैं. ऐसे में समझने वाली बात ये है कि इस
स्थिति में बुद्धिमान, काबिल बच्चों का वास्तविक दोषी कौन है? वो विद्यालय जो
संस्थानों में पर्याप्त ध्यान देने के बजाय घर में माता-पिता के सहारे से बच्चों की
शिक्षा पूरी करवाना चाहते हैं? या फिर वे माता-पिता जो अशिक्षित हैं और घर में
अपने बच्चों की पढ़ाई पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते हैं? या फिर वे बच्चे जो
बुद्धिमान हैं, होशियार हैं मगर गरीब घर में पैदा हो गए?
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होना ये चाहिए कि
सरकारी स्तर पर ऐसे विद्यालयों में प्रबंध किये जाएँ कि होनहार विद्यार्थी महज इस
कारण शिक्षा से वंचित न रह जाएँ, न किये जाएँ कि उनके माता-पिता दोनों ही निरक्षर
हैं अथवा कम पढ़े-लिखे हैं. ऐसे होनहार विद्यार्थियों को चिन्हित करके विद्यालय
प्रबंधन की तरफ से उनके अध्ययन के, उनकी समस्याओं के समाधान हेतु विशेष कदम उठाये
जाने चाहिए. इसके लिए यदि शासन-प्रशासन को स्थानीय स्तर पर कोई सहायता देनी पड़े तो
उसके लिए भी सरकार को उपाय करने चाहिए. आज के दौर में जबकि शिक्षा, अध्ययन सबके
लिए अनिवार्य ही है तब कोई जिज्ञासु, कोई होनहार शिक्षा से वंचित रह जाए तो ये जागरूक
बताये जाने वाले समाज के मुँह पर तमाचा ही होगा, विकास के नाम पर अंधाधुंध धन व्यय
करती सरकार के मुँह पर तमाचा होगा, शिक्षा को व्यापार बना देने वाले
शिक्षा-माफियाओं के मुँह पर तमाचा होगा.
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