सुना
तो कई-कई बार, पढ़ा भी अनेक बार मगर कभी दर्शन नहीं हुए ‘मगहर’ के. जी हाँ, वही
मगहर जिसके हिस्से ये कलंक जुड़ा हुआ था कि यहाँ जिसकी मृत्यु होती है उसके पुण्य
का नाश हो जाता है और वो व्यक्ति नरकगामी होता है. तत्कालीन सामाजिक विकृतियों,
अव्यवस्थाओं, धार्मिक कुरीतियों के विरुद्ध खुलेआम बोलने वाले कबीरदास ने मगहर में
ही अंतिम साँस लेने का निर्णय लिया. कबीर की मृत्यु, उसके पश्चात् अंतिम संस्कार
के लिए हिन्दू-मुस्लिम में हुए विवाद और फिर उसका निपटारा होने की कहानी संभवतः
सभी को ज्ञात होगी. बहरहाल, गोरखपुर यात्रा के समय सड़क के किनारे लगे बड़े से बोर्ड
‘सदगुरु कबीर साहेब की समाधि स्थली’ ने अपनी और आकर्षित किया. समयाभाव के बाद भी
उस स्थल तक जाने का लोभ संवरण नहीं किया जा सका और कार कबीर समाधि स्थल पर पहुँचकर
ही रुकी.
27 एकड़ में फैले इस समाधि स्थल में कबीरदास की आदमकद प्रतिमा ने बरबस ध्यान
आकर्षित किया मगर मन उनके वास्तविक समाधि स्थल पर जाने को लालायित था. कदम स्वतः
ही सामने दिख रही इमारतों की तरफ मुड़ चले. मन में कबीरदास की मृत्यु के समय उपजे
विवाद के कारण भी एक कौतूहल था, समाधि स्थल को देखने का. सामने दीवार पर समाधि
स्थल पर आने वाले श्रद्धालुओं का स्वागत करता हुआ बड़ा सा बैनर और चारों और हरियाली
के बीच शांति. भगवान भास्कर पश्चिम की तरफ बढ़े जा रहे थे और हम लोगों ने अपने को
उस चहारदीवारी के भीतर पाया.
आश्चर्य अपने आपमें इस कारण उपजा कि एक ही चहारदीवारी
के अन्दर दो धर्मों के स्थल देखने को मिले. हमारे ठीक सामने ‘मजार कबीर साहब’ की
इबारत लिखी इमारत थी, जो अपने आपमें स्पष्ट संकेत दे रही थी इस्लामिक मजहबी होने
का. एक महाशय ने बड़े ही अदब और शालीनता से आगे बढ़कर उस मजार के बारे में बताया साथ
ही अपनी उपस्थिति पंजिका पर नाम, पता आदि दर्ज करके मजार के दर्शन कर लेने का
आग्रह किया.
इमारत के भीतर दो मजारें, जिनमें से एक को कबीरदास की तथा दूसरी को
उनके बेटे की बताया गया. शाम गहराने से पूर्व उसी इमारत के बगल से, दूसरे हिस्से
में बने मंदिर को देखने की इच्छा व्यक्त करते हुए हम लोगों ने मंदिर प्रांगण की
तरफ बढ़ना आरम्भ किया.
इमारत
के प्रवेशद्वार पर ‘सदगुरु कबीर समाधि’ का लिखा होना और भीतर कबीर की मूर्ति का
होना उसके स्वतः ही हिन्दू धर्मावलम्बियों के होने के संकेत मिले. विस्तृत प्रांगण
के एक तरफ पुस्तकालय, एक तरफ कबीर साहित्य विक्रय हेतु उपलब्ध था.
वहाँ के महंत
विचार दास ने आगे बढ़कर परिचय देते हुए अपना परिचय दिया. बातचीत के सिलसिले में समाधि
स्थल में सेवा कर रहे डॉ० हरिशरण शास्त्री ने बताया कि उनके इस मंदिर द्वारा एक
अनाथालय का संचालन किया जा रहा है; कबीर पर अध्ययन करने के इच्छुक लोगों के लिए पढ़ने,
रुकने, खाने-पीने आदि की व्यवस्था भी की जाती है.
प्रांगण में खेलते बच्चे, कबीर-साहित्य के प्रति अनुराग दर्शाते लोग, चर्चाओं में लिप्त कुछेक लोग, हमारे आने का मंतव्य, स्थल, कार्य आदि जानने की उत्सुकता आदि से सुखद एहसास हुआ.
एक
प्रांगण में दो धर्मों, मजहबों की इमारतों को अलग-अलग रूपों में देखने के बाद जहाँ
एक तरफ ख़ुशी का एहसास हुआ वहीं मन में एक खटका सा भी लगा कि क्या मुसलमानों ने
कबीर को वर्तमान में अपने मजहब का नहीं माना है? क्या मुसलमानों में कबीर-साहित्य
के प्रति अनुराग नहीं रह गया है? हिन्दू धर्म के साथ-साथ इस्लाम की आलोचना करने
वाले कबीर को क्या वर्तमान मुसलमानों ने विस्मृत कर दिया है? दोनों इमारतों की
स्थिति, वहाँ आने वाले लोगों की स्थिति, दोनों तरफ की व्यवस्थाओं को देखकर, दोनों
इमारतों में सेवाभाव से कार्य करने वालों को देखकर लगा कि आज के समय में कबीर भी
धार्मिक विभेद का शिकार हो गए हैं. वो और बात रही होगी जबकि उनके अंतिम संस्कार के
लिए आपस में हिन्दू-मुस्लिम में विवाद पैदा हुआ होगा किन्तु ‘मगहर’ में स्थिति कुछ
और ही दिखाई पड़ी. इस्लामिक इमारत के नीचे मजार के रूप में कबीर नितांत अकेलेपन से
जूझते दिखाई दिए. जहाँ बस एक इमारत, एक सेवादार, नाममात्र को रौशनी और चंद हरे-भरे
पेड़-पौधे उनके आसपास हैं. किसी समय में तत्कालीन सामाजिक विसंगतियों पर बेख़ौफ़ होकर
बोलने वाले कबीर आज इस विभेद पर गहन ख़ामोशी ओढ़े लेटे दिखे.
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