इन्सान की फितरत की भांति ही अब मौसम अपनी फितरत बदलने में
माहिर हो गया है. गर्मी के मौसम में बारिश, सर्दी के मौसम में देर तक सर्दी का
एहसास न होने देना, अब बसंत के मौसम में घनघोर बारिश के द्वारा वो अपनी मनमर्जी का
संकेत दे रहा है. लगभग सम्पूर्ण देश में मौसम के इस बदलाव को देखा और महसूस किया
जा रहा है. अभी महज एक सप्ताह पूर्व असमय आई तेज बारिश, आंधी, ओलावृष्टि ने किसानों
की कमर तोड़कर ही रख दी है. खेतों में पकी खड़ी फसल अथवा पकने को तैयार फसल पूरी तरफ
से मिट्टी में बिछ गई है , जिससे कि अब एक दाना मिलने की भी उम्मीद नहीं है. किसान
बुरी तरह से मायूस है, हताश है और कई किसानों ने विगत दिनों इसी हताशा, निराशा में
आत्महत्या तक कर ली है.
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संभव है कि हम में से बहुत से अतिजागरूक लोग इस आपदा को
मानवजनित कहकर अपना आख्यान प्रस्तुत करने लगें. ये भी संभव है कि बहुत से लोगों को
किसानों की आत्महत्याओं में कोई दर्द मालूम न हो और वे इस पूरे घटनाक्रम को भी
राजनैतिक रंग देने से न चूकें. हो सकता है कि किसानों की सहायता के नाम पर भी तमाम
राजनैतिक दलों के बीच आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चालू हो जाये. आसमान से टपकी इस
आपदा के लिए कौन कसूरवार है कौन नहीं, किसके द्वारा प्रकृति का नुकसान ज्यादा किया
गया किसने कम नुकसान, किस राजनैतिक दल ने किसे सहायता दी किसे नहीं दी आदि का
आकलन, विश्लेषण बाद में भी हो सकता है. ये भी हम सभी जानते हैं कि मानव की अदम्य
लालसा ने, लोभ ने प्रकृति का भयानक दोहन किया है और उसे बुरी तरह से नष्ट किया है,
किन्तु वर्तमान हालातों में इन बातों पर चर्चा कर लेने से किसानों की समस्याओं का
हल नहीं निकलने वाला है. वर्तमान में सरकारों को, चाहे वो केंद्र सरकार हो अथवा
राज्य सरकारें, मिलजुलकर किसानों के हितार्थ योजनों को महज बनाने की नहीं वरन
उन्हें तत्काल प्रभाव से लागू करने की जरूरत है.
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हास्यास्पद और विद्रूपता वाली स्थिति ये है कि आज के हालातों
में किसी भी सरकार द्वारा किसानों के लिए सार्थक कदम नहीं उठाये जा रहे हैं. फसल
बीमा योजना के नाम पर खिलवाड़ पिछली केंद्र सरकार के समय से चल रहा है. राज्य
सरकारों का अपना-अपना रोना है और आरोपों का ठीकरा केंद्र पर फोड़ दिया जाता है. इस
तरह के कदमों से किसानों का भला नहीं होने वाला है. सरकारों को चाहिए कि तत्काल
सरकारी मशीनरी को संवेदित करते हुए जमीनी सर्वे करवाकर किसानों को तुरंत राहत,
मुआवजा दिला दिया जाये. सोचने वाली बात है कि यदि इन्हीं किसानों की जगह कोई
औद्योगिक आपदा आ गई होती तो सरकारों ने न जाने कहाँ-कहाँ से राहत के खाते खोल दिए
होते. किसानों को उद्योगपति समझते हुए, खेती को भी उद्योग मानते हुए सरकारों को इस
बारे में सजगता से काम करना होगा. ऐसा न होने की दशा में समाज में नकारात्मकता का
प्रसार होगा जो किसी भी रूप में किसानों के भविष्य के लिए, उनके परिवार के लिए,
उनके जीवन के लिए सही नहीं होगा.
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हाँ, एक अंतिम बात सरकारों के साथ-साथ किसी भी दल के आम
समर्थकों से कि वे भी अपना संयम न खोएं, अपने आपको नियंत्रित भाव से एक नागरिक
समझकर ही किसानों की मदद को आगे आयें. जिस तरह का राजनैतिक परिदृश्य वर्तमान में
दिख रहा है उससे नहीं लगता है कि कोई भी सरकार निष्पक्ष रूप से किसानों की सहायता
के लिए मुक्त-हस्त से आगे आएगी. और जो-जो सरकारें सामने आएँगी भी वे हमारे इन्हीं
सामान्य कार्यकर्ताओं, समर्थकों के कारण लगातार आरोपी बनाई जाति रहेंगी, आलोचना का
शिकार होती रहेंगी. इन सबका असर कहीं न कहीं किसानों को मिलने वाली मदद, मुआवजे पर ही पड़ेगा. तो न सही
कुछ समय की राजनीति, कुछ समय किसानों के हितार्थ एकजुट हो लिया जाये; सरकार को
जगाने के लिए खड़ा हो लिया जाये.
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(सभी चित्र लेखक के स्वयं निकाले हुए हैं....)
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