29 जनवरी 2015

थोड़ा सा ध्यान बच्चों पर भी

समाज की, परिवार की बदलती स्थितियों का प्रभाव बच्चों पर नकारात्मक रूप में देखने को मिलने लगा है. इस बात को संभवतः अभी भी बहुत सहजता से लिए जा रहा है कि छोटे-छोटे हँसते-खेलते बच्चे हमें अब गुमसुम से दिखाई देने लगे हैं. वे छोटी कक्षाओं में भी अधिक से अधिक अंक लाने के लिए, अपनी ग्रेडिंग ख़राब न होने के लिए चिंतित दिखाई देने लगे हैं. स्कूल के साथ-साथ घर-परिवार में भी उनपर पढ़ाई का अतिरिक्त मानसिक दवाब डालना उनसे उनके बचपन को छीन रहा है. इस तरह की दवाब वाली स्थिति के चलते बच्चे कभी-कभार खेलकूद में, अपने हमउम्र बच्चों के साथ मस्ती में व्यस्त हो जाते हैं तो स्कूल के कार्य को पूर्ण करने से वंचित रह जाते हैं. इसके अलावा निर्धारित पाठ्यक्रम को समय से याद न कर पाने की स्थिति भी देखने को मिलती है. ऐसी स्थितियों को स्कूल और परिवार की तरफ से सहज रूप में नहीं लिया जाता है बल्कि एक तरह का दवाब बनाया जाता है. कई बार तो ऐसी स्थितियों के चलते बच्चों को स्कूल में शारीरिक रूप से दण्डित भी किया जाता है. इनके चलते हम आये दिन छोटे-छोटे मासूम बच्चों के आत्महत्या करने जैसी ह्रदयविदारक खबरों से दो-चार हो रहे हैं. इस तरह की घटनाएँ हमारे आसपास बहुसंख्यक रूप से हो रही हैं, जिनमें छोटे-छोटे बच्चे अपने जीवन को अकारण ही समाप्त करते दिख रहे हैं.
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इसके अलावा आज की जीवनशैली, जिसमें सिर्फ और सिर्फ ‘मैं’ के लिए स्थान रह गया है, भी बच्चों के अन्दर हताशा, निराशा, आक्रोश पैदा कर रही है. सबके बीच रहकर भी बच्चा स्वयं को नितांत अकेला महसूस करता है. खेलने के लिए पार्कों के स्थान पर बनती बहुमंजिला इमारतें, खुलते चमक-दमक से भरे मॉल दिखाई दे रहे हैं. बच्चों के आपस में मिलजुल कर खेलने का स्थान वीडिओ गेम, कंप्यूटर, मोबाइल पर गेम आदि ने ले लिया है. हँसते-खेलते, धमाचौकड़ी करते, उठापटक करते बच्चों के स्थान पर प्रौढ़ बच्चे दिखाई देने लगे हैं, जिनका दिमाग चौबीस घंटे अधिक से अधिक अंक पाने की भूलभुलैया में भटकता रहता है. माता-पिता या घर-परिवार के बड़े बच्चों के साथ खेलने के बजाय सोशल मीडिया में आभासी क्रांति करते घूम रहे हैं. बच्चों की खुशियों के स्थान पर अपनी लाइक-कमेन्ट की चिंता में मगन हैं. बच्चों में धैर्य, आत्मविश्वास, संस्कार स्थापित करने के स्थान पर वे अपने बैंक-बैलेंस को बढ़ाने में लगे हैं. बच्चों के साथ सहयोग की भावना दर्शाने के स्थान पर पति-पत्नी का आपस में बदजुबानी करना प्रदर्शित किया जा रहा है.......ऐसा नहीं कि ये सभी घरों की समस्या है पर बहुतायत घरों-परिवारों में आज ये समस्या देखने को मिल रही है.
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ऐसे माहौल में जबकि बच्चे को अपनी परेशानी, अपनी निराशा, अपनी हताशा, अपनी समस्या के निपटारे के लिए कोई रास्ता नहीं दीखता है, कोई अपना नहीं दीखता है तब वह घनघोर रूप से एकाकी महसूस करता हुआ खुद को जीवन समाप्ति की तरफ ले जाता है. आखिर अपने एकाकी पलों में उसका दोस्त, उसका सहारा या तो टीवी होता है या फिर इंटरनेट...और इन माध्यमों से कितनी सार्थक सोच, कितनी सार्थक विचारधारा, कितनी सार्थक संस्कृति हमारे घरों में प्रवेश कर रही है अथवा कर चुकी है, कहने की-बताने की आवश्यकता नहीं. अपने बच्चों के बीच बिना बैठे, उनके साथ बिना खेले, उनके मनोभावों को बिना बांटे हम बच्चों को बचाने में लगभग असफल ही रहेंगे. अच्छा हो कि दूसरों का कुछ बेवजह का शेयर करने के साथ अपना समय हम अपने बच्चों के साथ शेयर करें जिससे हम उनके हँसते-खेलते बचपन में अपना बचपन देख सकें....अपने बच्चों का जीवन सुरक्षित रख सकें.
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