संसद में बैठे विपक्षी अत्यंत चिंतित हैं
इजराइल-फिलिस्तीन संकट को लेकर। वे इस पर सदन में बहस करवाकर कोई प्रस्ताव पारित
करवाने की माँग पर अड़े हैं और सत्ता पक्ष इसके लिए कतई तैयार नहीं दिखता है।
विपक्षियों का अपने तरीके से सोचना शायद जायज हो सकता है, आखिर हमारी सरकार और हमारे विपक्ष ने देश की सभी
समस्याओं को सुलझा लिया है। देश में किसी तरह की, कोई भी समस्या अब दिख नहीं रही
है। राष्ट्रीय स्तर की बड़ी से बड़ी समस्याएँ एकाएक सुलझ गई हैं; पड़ोसी देशों के साथ
आये दिन होने वाली समस्यायों का निदान भी हो चुका है। अब पाकिस्तान की तरफ से किसी
भी तरह की आतंकी घटना नहीं होती है, कश्मीर को अत्यंत सहज रूप में उसने भारत का
हिस्सा मानकर अपने हिस्से वाला कश्मीर खाली कर दिया है। कुछ इसी तरह का हाल चीन का
है, उसने अरुणाचल प्रदेश सहित तमाम भारतीय भूमि पर अपने कब्जे को छोड़ दिया है;
घुसपैठ जैसी कोई हरकत उसने करनी बंद कर दी है। देश की अंदरूनी समस्याओं से भी
निजात मिल चुकी है, महिलाएं-बेटियाँ सुरक्षित हैं; मंहगाई पूर्ण नियंत्रण में है;
बिजली-संकट जैसी कोई चीज नहीं; सबको रोटी-कपड़ा-मकान-रोजगार-शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी
मूलभूत आवश्यकताएं सहज उपलब्ध हैं। ऐसे में अब संसद करे तो क्या करे, ये बहुत बड़ा
सवाल है विपक्षियों के सामने। तो फिर उन्होंने केंद्र सरकार का ध्यान राष्ट्रीय
मुद्दों के समाधान के बाद अंतर्राष्ट्रीय संकटों को सुलझाने पर लगाया है।
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विपक्षी कहीं संसद को संयुक्त राष्ट्र संघ का
कार्यालय तो नहीं समझने लगे हैं? कहीं वे ये तो मान नहीं बैठे हैं कि
इजराइल-फिलिस्तीन के साथ दोस्ताना संबंधों के चलते भारतीय संसद कोई प्रस्ताव पारित
कर देगी तो दोनों देश उसे मानने पर मजबूर हो जायेंगे? कहीं विपक्षियों, विशेष रूप
से कांग्रेसियों को ये भ्रम तो नहीं पैदा हो गया है कि वे अभी भी सत्ता में हैं और
इंदिरा-राजीव नाम के रूप में इजराइल या फिलिस्तीन को समझा लेंगे? ऐसे अवसर पर जबकि
दोनों देशों के साथ भारत के सम्बन्ध दोस्ताना रहे हैं, किसी एक देश के पक्ष में
समर्थन दिखाने का या प्रस्ताव पारित करने का विदेशी राजनयिक संबंधों पर प्रतिकूल
असर पड़ सकता है। इसके अलावा बजाय इस संकट पर बहस के वहाँ फंसे भारतीयों, यदि हैं,
को निकालने सम्बन्धी कोशिशों पर चर्चा हो; ऐसे ही किसी संकट के अपने आसपास उत्पन्न
हो जाने की दशा में उससे निपटने के तरीकों पर चर्चा हो; ऐसे संकट के चलते
पेट्रोलियम पदार्थों की अनुपलब्धता होने की दशा में उसके समाधान के उपायों पर
चर्चा हो किन्तु ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।
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यदि विपक्ष विदेशी संकटों के मामलों में बहस का
इतना ही इच्छुक है, विदेशी राजनयिक संबंधों को लेकर इतना ही सजग रहता है तो उसने
ऐसी पहल ईरान संकट के समय क्यों नहीं की? उसके लिए युक्रेन की समस्या सामने आने पर
ऐसा कदम क्यों नहीं उठाया गया? चीन-पाकिस्तान के कुकृत्यों का जवाब देने के लिए
विपक्ष आगे क्यों नहीं आया? दरअसल वर्तमान में विपक्ष का मूल एजेंडा किसी भी रूप
में केंद्र सरकार को अस्थिर बनाये रख कर कार्यों में व्यवधान उत्पन्न कराना है;
केंद्र सरकार को किसी भी रूप में गलत साबित करना है। विपक्षी यदि सदन में चर्चा के
इतने ही शौक़ीन हैं तो घरेलू मुद्दों पर बहस करें क्योंकि सदन तो बहस के लिए, चर्चा
के लिए ही बना हुआ मंच है। अभी हमारा देश अपनी मूलभूत समस्याओं से निजात नहीं पा
सका है; अभी बिजली-संकट जबरदस्त रूप से गहराया है; पिछली सरकार के घोटालों के भूत
सिर पर मंडरा रहे हैं; बेटियाँ रोज ही शारीरिक शोषण-हत्या का शिकार हो रही हैं; माननीय
आये दिन किसी न किसी अपराध में लिप्त होते दिख रहे हैं; अपराधी जेलों में रहकर भी
माननीय बनते जा रहे हैं; नौनिहाल शिक्षा-स्वास्थ्य-रोटी के लिए आज भी भटक रहे हैं;
मूलभूत आवश्यकताओं का रोना आज भी लगा हुआ है। इजराइल-फिलिस्तीन संकट के मद्देनजर सदन
में चर्चा को व्याकुल विपक्षी जन-हित, देश-हित मुद्दों पर बहस के लिए केंद्र सरकार
को घेरें तो उनकी भी कुछ सार्थकता है अन्यथा की स्थिति में वातानुकूलित सदन में अपनी-अपनी
जीभ की खलिश मिटाने के अलावा और कुछ नहीं किया जा सकता है। विपक्ष का ये रवैया संवेदनशील
विपक्ष की नहीं वरन केंद्र सरकार के कार्यों में रोड़े अटकाने वाले और जन-हित, देश-हित
के कार्यों से मुँह चुराने वाले विपक्ष की पहचान है।
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