संघ लोक सेवा आयोग के सिविल सेवा परीक्षा के नए
संस्करण से स्पष्ट समझ आ रहा था कि हिन्दी भाषी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के
प्रतिभागियों को लिए अवसर भले ही समाप्त न हों पर लगभग समाप्त हो जायेंगे. ऐसी
आशंका को सच भी होते देखा गया जबकि इस बार का परीक्षा परिणाम सामने आया. अंग्रेजी
की अनिवार्यता ने हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के प्रतिभागियों को कहीं बहुत
पीछे धकेल दिया है. आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता और अन्य भारतीय
भाषाओं के समान रूप से लागू किये जाने को लेकर विगत कई वर्षों (सन 1988) से आयोग के मुख्य द्वार पर अनवरत अनशन चल रहा है. इस अनशन ने वर्तमान
परीक्षा परिणाम आने के बाद और जोर पकड़ा. दिल्ली में आयोग की परीक्षाओं से अंग्रेजी
की अनिवार्यता को समाप्त करने सम्बन्धी अनशन पुनः अपने चरम पर है. इसमें
प्रतिभागियों के अतिरिक्त दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर्स और अन्य वे जागरूक
नागरिक, जो हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के भविष्य के प्रति चिंतित हैं, भी
शामिल हो गए हैं.
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इस पूरे आन्दोलन को, अनशन को, विरोध प्रदर्शन को
संकीर्णता से देखने की आवश्यकता नहीं है बल्कि हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के
अस्तित्व की लड़ाई के रूप में देखने की जरूरत है. माना जा सकता है कि कुछ प्रतिभागी
अपने जीवन-यापन, अपने नौकरी, सिविल सेवा में सम्मिलित-सफल होने के लिए अंग्रेजी की
अनिवार्यता को समाप्त करके हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लागू किये जाने की
माँग कर रहे हों किन्तु प्रतिभागियों से इतर लोगों का इस माँग में, अनशन में,
आन्दोलन में शामिल होना आन्दोलन को सार्थकता प्रदान करता है. यदि एक पल को इस
आन्दोलन को महज नौकरी पाने वालों का संघर्ष मान लिया जाये, सिविल सेवा में चयनित
होने के इच्छुक प्रतिभागियों का विरोध मात्र मान लिया जाये तो भी इस पर ऊँगली कैसे
उठाई जा सकती है? क्या अपनी भाषा में नौकरी की चाह रखना गलत है? क्या अपनी भाषा के
माध्यम से देश की उच्च सेवा में आने का सपना देखना कानूनन जुर्म है? क्या अपनी
मातृभाषा को परीक्षा का माध्यम बनाकर चयनित होना होना प्रतिभाशाली न होने की
निशानी है? आज़ादी के छह दशक से ज्यादा होने के बाद भी देश की उच्च सेवा में स्थापित
होने के लिए भारतीय भाषाओं को भारतीय-अंग्रेजों से जूझना पड़ रहा है. ये अत्यंत शर्मनाक
स्थिति है.
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आयोग की तरफ से अथवा इस परीक्षा में अंग्रेजी की
अनिवार्यता के प्रति समर्थन देते लोगों की मानसिकता उस अभिजात्य वर्ग की तरह है,
उस चापलूस वर्ग की तरह से है जो अंग्रेजी शासन के समय में भारतीय होकर भी अंग्रेजी
शासकों की गुलामी करने को सहर्ष तैयार हो जाता था. दूसरी ओर हिन्दी तथा अन्य
भारतीय भाषाओं के भविष्य को लेकर संघर्षरत लोग इन भाषाओं को आयोग की परीक्षाओं में
स्थापित करने का संघर्ष नहीं कर रहे हैं वरन भारतीय भाषाओं की अस्मिता, उसके
अस्तित्व, उसकी संस्कृति के लिए संघर्ष कर रहे हैं. व्यापक फलक में देखा जाये तो
आयोग जैसी मानसिकता से ग्रसित ढाँचा पूरी तरह से भारतीयता को नकारने का कार्य कर
रहा है और ऐसा उन विदेशी ताकतों के इशारों पर हो रहा है जो देश को मानसिक गुलाम
बनाना चाहते हैं. सुनियोजित तरीके से एक षडयंत्र रचकर उच्चस्तरीय सेवाओं से भारतीय
भाषाओं, भारतीय भाषी लोगों को दूर करके अंग्रेजी मानसिकता के, अंग्रेजी संस्कृति
के पोषक लोगों को स्थापित करवाया जा रहा है. ‘सर्वोच्च ज्ञान अंग्रेजी भाषा में ही
है’ की मानसिकता युवाओं में ठूँस-ठूँस कर भरी जा रही है और भारतीय भाषाओं को महज
कहानी-कविता की भाषा बनाकर रख दिया जा रहा है.
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भारतीय भाषाओं के साथ-साथ भारतीय संस्कृति को
समाप्त करने का कुचक्र रचा जा रहा है, जो दिख भी रहा है किन्तु हम सब पता नहीं किस
व्यामोह में फँस कर शांति से सब कुछ होता देख रहे हैं. आइये, सिविल सेवा में चयन
के आकांक्षियों के लिए नहीं वरन भारतीय भाषाओं के अस्तित्व के लिए, अपनी संस्कृति
के रक्षण के लिए एक कदम इस ओर भी उठायें.
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