भारतीय जनता पार्टी
को मिले स्पष्ट बहुमत से अधिक हैरानी की बात बहुजन समाज पार्टी को एक भी सीट न
मिलना तथा समाजवादी पार्टी का मात्र पाँच सीटों पर सिमट जाना है. उत्तर प्रदेश की
राजनीति में सपा और बसपा द्वारा जातिगत समीकरणों के आधार पर पिछले दो दशक से अधिक
समय से अपनी हनक दर्शायी जा रही थी. वर्ष २००७ के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों
में बसपा द्वारा दलित-ब्राह्मण गठजोड़ से पूर्ण बहुमत सरकार बनाने के बाद राजनैतिक
विश्लेषकों ने ‘सोशल इंजीनियरिंग’ नामक नए समीकरण को समाज के बीच उछाल दिया था.
बसपा के बंधे-बंधाये वोट-बैंक और उस पर उच्च जातियों को टिकट वितरण से माना जाने
लगा था कि आने वाला समय बसपा के मनोनकूल है किन्तु वर्तमान लोकसभा चुनाव के
परिणामों ने सभी कयासों का ध्वंस कर दिया.
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लोकसभा के चुनाव
परिणामों को यदि सरसरी निगाह से भी देखा जाये तो स्पष्ट समझ आता है कि समूचे चुनाव
में जिस तरह से गैर-भाजपाई दलों ने ध्रुवीकरण करने की कोशिश की उसने भाजपा के पक्ष
में माहौल बनाने का काम किया. मुस्लिम तुष्टिकरण हो, दलित का उच्च जातियों के साथ
गठजोड़ करने की मानसिकता हो, जाति-विशेष को प्राथमिकता के आधार पर लाभान्वित करना
रहा हो, सबने कहीं न कहीं प्रदेश में भाजपा के प्रति दूसरे मतदाताओं को संगठित
होने के लिए अवसर प्रदान किया. ये स्थिति महज उत्तर प्रदेश की नहीं वरन समूचे
उत्तर भारत की कही जा सकती है. उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा के अपने-अपने कार्यकाल
की प्रगति-रिपोर्ट मतदाताओं के मन-मष्तिष्क में गहरे से बैठी हुई थी, उस पर
मुसलमानों के प्रति इन दलों के अतिरिक्त उपजे प्रेम ने हिन्दू मतदाताओं का भी
ध्रुवीकरण कर दिया. अभी तक जो काम खुद भाजपा राम के नाम पर, हिंदुत्व के नाम पर,
राम मंदिर के नाम पर, कश्मीर के नाम पर करती आ रही थी उस काम को इन दलों ने ही
सहजता से कर दिया. प्रदेश में होते दंगों में इन दलों की भूमिका, कारसेवकों पर
गोलियां चलवाने का दंभ भरा बयान, दलित वोट के सहारे सत्ता पर पहुँचने की लालसा और
मनुवाद के नाम पर उच्च जातियों पर दोषारोपण, केंद्र सरकार को बचाए रखने में इन
दोनों दलों की अंध-भक्ति को मतदाताओं ने बहुत करीब से महसूस किया.
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इन दलों की एकपक्षीय
और दाम्भिक कार्यप्रणाली से त्रस्त मतदाताओं को कांग्रेस की भ्रष्ट, तानाशाहात्मक
कार्य-प्रवृत्ति भी नागवार गुजर रही थी. ऐसे में इस बीमारी को दूर करने के लिए
मतदाताओं को नमो जैसा इलाज दिखाई देने लगा था. राजनैतिक विसंगतियों को दूर करने के
लिए मोदी जैसा चमत्कारिक व्यक्तित्व और कांग्रेस, बसपा, सपा की अघोषित जुगलबंदी,
पक्षपातपूर्ण कार्यशैली, उच्च जातियों के लिए अपमानजनक बयानबाजी आदि ने गैर-दलित,
गैर-पिछड़े मतदाताओं को भी संगठित करके भाजपा की तरफ मोड़ने का कार्य किया. परिणामतः
मीडिया द्वारा प्रचारित एवं स्पष्ट दिखती मोदी-लहर का प्रवाह और तेज़ हो गया. इस
चुनाव ने बहुत से बने-बनाये कयासों का विध्वंस किया है और भविष्य की राजनीतिक दिशा
तय करने की दिशा में कदम बढ़ाया है. मुस्लिम तुष्टिकरण, एकमुश्त दलित वोट-बैंक,
पिछड़ी जातियों के संगठित, हिन्दू मतदाताओं के बिखरे होने को नकारा है. यही कारण है
कि बसपा अपना खाता भी नहीं खोल सकी, सपा सिर्फ परिवार तक सीमित होकर रह गई तथा पहली
बार सत्तारूढ़ दल बिना मुस्लिम सांसद के सदन में दिखेगा. इस चुनाव परिणामों का
गंभीरता से विश्लेषण करने की आवश्यकता है, भविष्य की राजनैतिक दिशा बहुत हद तक
इससे निर्धारित होगी.
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