18 नवंबर 2013

बलात्कार में विरोध न कर पाने की दशा में समर्पण कर जान बचाएँ




कई बार मीडिया की ‘सबसे पहले हम’ की अनावश्यक दौड़ और सोशल मीडिया की अतिशय जागरूकता से विषय की संवेदनशीलता दम तोड़ती दिखाई देने लगती है. किसी विषय की गंभीरता और उसका वास्तविक सन्देश अधिकतर बेवजह की बहसों में गुम हो जाता है. खुद को बुद्धिजीवी और जागरूक दिखाने के चक्कर में भी ऐसा हो जाया करता है, जैसा कि अभी सीबीआई प्रमुख के बलात्कार सम्बन्धी हालिया बयान पर हुआ. एक सपाट बयान का बिना वास्तविक अर्थ निकाले मीडिया के दोनों रूपों में जमकर बहस हुई और फिर बिना कोई परिणाम निकाले समाप्त भी हो गई. मीडिया और सोशल मीडिया के साथ आज यही हो रहा है, दोनों जगहों की अतिशय जल्दबाजी किसी भी विषय पर बहस शुरू तो करवा देती है किन्तु उसे किसी सार्थक परिणाम पर, अंतिम परिणाम तक नहीं पहुँचाती है.
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हो सकता है सीबीआई अधिकारी के बयान की शब्दावली आपत्तिजनक हो किन्तु यदि बलात्कार के सन्दर्भ में समूचे बयान को देखा जाये तो शायद इन्हीं विरोधी स्वरों में से अधिसंख्यकों को उसमें कोई आपत्ति नज़र नहीं आएगी. ये आवश्यक नहीं कि प्रत्येक बिंदु पर, प्रत्येक विषय पर उसी सम्बंधित विषय/बिंदु का सन्दर्भ लिया जाये. यदि बलात्कार से सम्बंधित बयान को जांचने समझने की जरूरत महसूस की जाती तो कुछ और उदाहरणों से उस सम्बंधित अधिकारी के बयान को नापा-तौला जा सकता था. आये दिन हमारा सामना इस तरह की खबरों से होता है जहाँ चाकू, तमंचा, बन्दूक आदि के बल पर जबरन बलात्कार किये जाते हैं, चोरी, अपहरण तक किये जाते हैं. जब किसी हथियार के बल पर या फिर सम्बंधित महिला या उसके किसी भी परिवारीजन की जान लेने की धमकी पर उसके साथ बलात्कार किया जाता है तो उस समय पीड़ित महिला किसी तरह का विरोध नहीं कर रही होती है. इसी बिंदु पर आकर उस आपत्तिजनक लगने वाले बयान को समझने की आवश्यकता है. यहाँ पीड़ित महिला उस शारीरिक आक्रमण को एन्जॉय नहीं कर रही होती है वरन खुद की, अपने संबंधितों की जान बचाकर समर्पण किये होती है. तत्कालीन परिस्थिति को ध्यान में रखने के बाद कोई बुद्धिजीवी बताये कि क्या उस महिला का ऐसा समर्पण गलत कहलायेगा? या फिर जान बचाने की खातिर महिला द्वारा समर्पण कर देने का समर्थन करने वाले का क्या विरोध किया जायेगा?
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इससे संभवतः कोई इंकार नहीं करेगा कि जान बचाने के लिए किसी भी स्थिति में, किसी के सामने समर्पण कर देना गलत नहीं हो सकता है, विशेषकर बलात्कार, चोरी, डकैती, अपहरण आदि जैसे मामलों में. ऐसे मामलों में अपराधी किसी तरह की संवेदनशीलता दिखाने नहीं आते हैं, सम्बंधित पक्ष के साथ व्यवहार बनाने नहीं आते हैं, कोई दोस्ताना दिखाने नहीं आते हैं तब यदि जिंदगी को बचाए रखना महत्त्वपूर्ण समझ आता है तो समर्पण कर देने में कोई बुराई नहीं है. इस सन्दर्भ में उस अधिकारी के शब्दों की निंदा तो की जा सकती है किन्तु उस बयान के पीछे की मानसिकता को समझे बिना उसका विरोध करना कतई तार्किक नहीं है. ‘विरोध न कर पाने की स्थिति में एन्जॉय करें’ जैसा कुछ कहने के स्थान पर यदि कहा जाता कि ‘विरोध न कर पाने की दशा में जान बचाने के लिए समर्पण कर दें’ तो शायद ज्यादा उपयुक्त होता. हो सकता है कि अपने पद का अहंकार, खुद को अति बुद्धिजीवी सिद्ध करने की जल्दबाज़ी, मीडिया में चर्चित होने की लालसा ने उस अधिकारी की जुबान को अनियंत्रित कर दिया हो, ऐसा आजकल अच्छे-अच्छों के साथ हो रहा है.
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