साहित्य और
साहित्यकारों में प्रगतिशीलता, विमर्श के नाम पर व्यापक तमाशा देखने को मिल रहा
है. इनका नाम लेकर साहित्य में कुछ भी लिख देने की स्थिति दिखाई देने लगी है. लेखन
में अब जितना अधिक खुलापन दिखेगा, जितनी अधिक अश्लीलता दिखेगी, स्त्री-पुरुष
संबंधों की अंतरंगता जितनी उभर कर सामने आयेगी, महिलाओं को लेकर भारतीय समाज में
निर्धारित गोपन को जितना अधिक उघाड़ा जायेगा वह साहित्य तथा साहित्यकार उतना ही
अधिक प्रगतिशील समझा जायेगा. इस तथाकथित प्रगतिशीलता की दौड़ में शामिल होने के लिए
लेखकों की एक लम्बी जमात आज साहित्य-जगत में दिखाई दे रही है. इस पर विद्रूपता ये
कि इक्का-दुक्का निम्नस्तरीय रचनाओं की-कृतियों की रचना करके, इधर-उधर से जुगाड़
लगाकर पुरस्कार हथियाकर ऐसे लेखक खुद को साहित्यकार और अपनी रचनाओं को साहित्य की
श्रेणी में शामिल बताने लगे हैं.
.
यदि कुछ भी लिख देने
को, अश्लील लिख देने को, गोपन को उघाड़ देने को, विमर्श के नाम पर देह को प्रदर्शित
कर देने को, प्रगतिशीलता के नाम पर रतिक्रियाओं का चित्रण कर देने को साहित्य माना
जाये तो समाज को, साहित्यकारों को, पाठकों को साहित्य की परिभाषा फिर से निर्धारित
करनी चाहिए. विडंबना ये है कि एक तरफ साहित्य की मूल परिभाषा को दरकिनार किया जा
रहा है वहीं दूसरी तरफ अपने शैक्षिक अनुभवों की अश्लीलतम पोथी तैयार करके तमाम
सारे लोग साहित्यकारों की नई जमात को जन्म देते जा रहे हैं. कुकुरमुत्तों की भांति
उगते इन आयातित साहित्यकारों के कारण वास्तविक साहित्यकारों की रचनाओं को पाठकों
का टोटा हो गया है. जिस तरह की पाठ्य-सामग्री आज बाज़ार में देखने को मिल रही है,
वो भी साहित्य के नाम पर, यदि इसी को साहित्य कहते हैं तो फिर पीली पन्नी में बंद
होकर बिकती पत्रिकाओं को, रेलवे स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म, बस स्टैंड पर बिकते सस्ते उपन्यासों
को भी साहित्य माना जाना चाहिए. देखा जाये तो इन सस्ते उपन्यासों की बिक्री किसी
भी चर्चित साहित्यकार की किसी भी कृति की बिक्री से कहीं अधिक होती है. जबकि इनके
लिए न तो किसी तरह के पुस्तक मेले का आयोजन किया जाता है और न ही इनके प्रकाशक
उच्च स्तरीय मार्केटिंग का सहारा लेते हैं. और तो और प्रतिष्ठित साहित्यकारों की
तरह इनके उपन्यास आने में वर्षों का समय नहीं लगता है, ऐसे उपन्यासों के लेखक लगभग
प्रतिमाह एक-दो नए उपन्यासों को बाज़ार में उतार देते हैं.
.
याद रखना होगा कि प्रगतिशीलता
नंगा होना नहीं सिखाती है, विचारों को उच्च शिखर पर स्थापित करने का रास्ता दिखाती
है. आज प्रगतिशीलता के नाम पर, विमर्श के नाम पर साहित्य की जो स्थिति है उसे देखकर
उन सभी साहित्यकारों को, पाठकों को एकजुट होना चाहिए जो आज भी ये मानते हैं कि
साहित्य के माध्यम से कुछ अच्छा सा, दिल को छूने वाला सा, अनुसरण करने वाला सा,
सीख देने वाला सा आदि पढ़ने को मिलेगा. बहुत जल्दी यदि ऐसा न किया गया तो आने वाले
दिनों में साहित्य के नाम पर स्थापित होने वाली रचनाओं में और सस्ते दर पर उपलब्ध
पीले पन्नी की रचनाओं में अंतर कर पाना संभव नहीं रहेगा.
.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें