बाज़ार करवाचौथ व्रत
मनाने या कहें कि मनवाने के लिए सजकर तैयार हो चुका है. महिलाएँ, नवविवाहिताएँ
व्रत से सम्बंधित खरीददारी बड़े ही मनोयोग से करती दिख रही हैं. बाजारीकरण का
प्रभाव करवाचौथ व्रत पर भी व्यापक रूप से पड़ा है, कुछ फिल्मों ने भी इस व्रत को चकाचौंध
से भरा है साथ ही एक नई बहस को भी जन्म दिया है. इस बहस ने पत्नियों के साथ-साथ
पतियों के व्रत रहने को केंद्र में ला खड़ा किया है. ऐसी मान्यता सदियों से चली आ
रही है कि पतियों की लम्बी आयु के लिए पत्नियों द्वारा यह व्रत रखा जाता है. फिल्मों
से चले करवाचौथ के हीरो-हीरोइनों के भाव-प्रणय दृश्यों से निकल कर ये बहस समाज के
भीतर उतर आई. व्रत रखती महिलाएँ और महिला-अधिकारों की आलम्बरदारी करते लोग
चिल्ला-चिल्ला कर इस बहस को तो आगे बढ़ाने लगे कि पतियों को भी पत्नियों की लम्बी
आयु के लिए व्रत रखना चाहिए; करवाचौथ का व्रत अपनी पत्नियों के साथ रहना चाहिए. इस
निरर्थक बहस के पीछे कहीं से भी ये बहस नहीं उठी कि विज्ञान के इस युग में आज महज
चंद्रमा की पूजा-आराधना से आयु का निर्धारण घनघोर अन्धविश्वास है.
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करवाचौथ आते-आते इस
बहस को हवा दी जाएगी; तमाम आधुनिक महिलाएं व्रत रहने के साथ-साथ पुरुषों को कोसती
नज़र आयेंगी; कुछ नौजवान पति अपनी-अपनी पत्नियों के साथ करवाचौथ का व्रत रहते दिखाई
देंगे. करवाचौथ के साथ शुरू होने वाली अतार्किक बहस से पूर्व इन बिन्दुओं पर यदि
विचार किया जाये तो संभव है कि बहस को सही दिशा में जाने का रास्ता दिखाई दे.
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१-यदि करवाचौथ व्रत
रहने से पतियों की आयु में वृद्धि हो रही होती तो फिर कम से कम भारतीय समाज में
कोई विधवा स्त्री नहीं दिखाई देनी चाहिए थी. यदि इस व्रत के बाद भी यदि पति का
देहांत पत्नी के पहले हो जाता है तो इसका अर्थ है कि या तो इस व्रत में कोई तथ्य
नहीं, कोई तत्त्व नहीं या फिर व्रत पूर्ण मनोयोग से नहीं रखा गया.
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२-व्रत रहने वाली
स्त्रियाँ यदि ये मानती हैं कि उनके साथ-साथ पुरुषों को भी व्रत रखना चाहिए तो कम
से कम वे पत्नियाँ व्रत न रहें जिनके पति उनके साथ व्रत न रहें. इसके साथ ही यदि
इसको भी मान लिया जाये कि पति जबरन अपनी पत्नी को करवाचौथ का व्रत रखवाते हैं तो
भी क्या चौबीसों घंटे उस महिला के आसपास उसका पति घूमता रहता है? क्यों नहीं वह
पत्नी चोरी-छिपे ही कुछ खा-पी लेती है? क्यों नहीं वह व्रत का महज नाटक कर लेती
है? किस श्रद्धा-भक्ति में वह पूरे दिन भूखी-प्यासी बनी रहती है?
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३-भारतीय समाज में
आज इतनी आधुनिकता के बाद भी विधवा स्त्रियों को लेकर दकियानूसी विचारधाराएँ बनी
हुई हैं, कहीं-कहीं बहुत ही पुष्ट होकर सामने आई हैं. ऐसे में क्या ये न समझा जाये
कि महिलाएँ अपने आपको वैधव्य की जटिलता-दुरूहता से बचाने के लिए ही इस व्रत को
रखकर पतियों की दीर्घायु की कामना करती रहती हैं?
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कितनी बड़ी विडंबना
है कि जहाँ चंद्रमा को इन्सान ने अपने पैरों तले कुचल दिया हो; जहाँ विज्ञान ने
तमाम सारे अंधविश्वासों से पर्दा उठाया है; जहाँ धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एक तरफ
धार्मिक क्रियाकलापों को ढकोसला बताया जाता हो; जहाँ धर्म के नाम पर वोट-बैंक की
खातिर हिन्दू जीवन-पद्धति का मखौल उड़ाया जाता हो; जहाँ देवी-देवताओं को काल्पनिक बताकर
उनकी उपासना पर अंकुश लगाये जाने का समर्थन किया जाता हो वहाँ ऐसे लोगों द्वारा ही
करवाचौथ व्रत को पूरे आडम्बर के साथ मनाते हुए देखा जाता है. धार्मिक-विश्वास के
तहत किसी भी काम को किया जाना तब तक गलत नहीं समझा जा सकता जब तक कि उससे किसी की
हानि न हो किन्तु जब किसी भी धार्मिक कृत्य से समाज में विखंडन के, विभेद के,
विद्वेष के स्वर उभरने लगें, पारिवारिकता में, दाम्पत्य में, संबंधों में तनाव आने
लगे तो उस धार्मिक कृत्य का विरोध होना चाहिए, बहिष्कार होना चाहिए. इस बात को वे
स्त्रियाँ समझें जो चंद्रमा को जल-अर्पण करके पतियों की आयु-वृद्धि की कामना करती
हैं. वे नौजवान पति भी समझें जो आधुनिकता के वशीभूत करवाचौथ व्रत में तो कंधे से
कन्धा मिलाते दिखते हैं बाद में उनकी सोच में स्त्री-विरोध स्पष्ट रूप से झलकता
है.
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