भारतीय परम्परा के दर्शन के मूल से एक प्रश्न
उभरता है कि मैं कौन हूँ? भारतीय शिक्षा पद्धति की गुरु-शिष्य परम्परा के निर्वहन
का आदर्श शिष्य नचिकेता भी ‘मैं कौन हूँ’ के प्रश्न का आवरण
ओढ़कर गुरुकुल की, गुरु की शरण में पहुँचा था। ‘मैं कौन हूँ’
का बीजारोपण भले ही दर्शनशास्त्र में रहा हो किन्तु धीरे-धीरे यह प्रश्न
पल्लवित-पुष्पित होकर भारतीय सामाजिक परम्परा का हिस्सा बन गया। दर्शन की परम्परा से
अलग हम इस प्रश्न को जब सामाजिकता पर खड़ा करके देखते हैं तो दार्शनिकता की तरह यहाँ
भी यह अपने साथ जवाबों का समुच्चय लेकर सामने आता है। सामाजिक परम्परा का विशालतम स्वरूप
और इस विशालतम स्वरूप में बहुत छोटा सा अर्थ यहाँ भी अपने आपको तन्हा, एकान्त में सिमटा-सकुचा सा पाता है। यहाँ वह तन्हा होकर भी तन्हा नहीं रह पाता,
एकान्तता में लिपटा होकर भी हमें एकान्तता में सिमटा नहीं दिखता,
इस प्रश्न के साथ एक छवि दिखाई देती है। एक स्त्री की छवि, एक नारी शरीर की छवि। प्रश्न की तरह विविधतापूर्ण, प्रश्न
की तरह ही विविध आयामों से परिपूर्ण, प्रश्न की तरह ही विविध
परिस्थितियों में विविध तत्त्वों को समाहित करने वाली स्त्री-छवि। प्रश्न की दार्शनिकता
की तरह विविधता, किसी स्वरूप में देवी, कहीं माँ तो कभी पत्नी, बहिन, बेटी......
इस विविधतापूर्ण अस्तित्व और व्यक्तित्व को धारण करने के बाद भी ‘मैं कौन हूँ’
के लिए जवाब खोजती आकृति। स्त्री ही प्रश्न करने वाली, स्त्री ही जवाब देने वाली; बावजूद इसके प्रश्न हर बार
निरुत्तरता से खड़ा रहता है और उत्तर की चाह रखता है।
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जवाब हमारे सभी के अन्दर ही है पर उसको सामने
लाने में हम घबराते भी दिखते हैं। स्त्री को एक देह से अलग एक स्त्री के रूप में देखने
की आदत को डालना होगा। स्त्री के कपड़ों के भीतर से नग्नता को खींच-खींच कर बाहर लाने
की परम्परा से निजात पानी होगी। क्या बिकाऊ है और किसे बिकना है, अब इसका निर्धारण स्वयं बाजार करता है, हमें तो किसी
को बिकने और किसी को जोर जबरदस्ती से बिकने के बीच में आकर खड़े होना है। किसी की मजबूरी
किसी के लिए व्यवसाय न बने यह समाज को ध्यान देना होगा। उचित और अनुचित, न्याय और अन्याय, विवेकपूर्ण और अविवेकपूर्ण,
स्वाधीनता और उच्छृंखलता, दायित्व और दायित्वहीनता,
श्लीलता और अश्लीलता के मध्य के धुँधलके को साफ करना होगा। सामाजिकता
के निर्वहन में स्त्री-पुरुष को समान रूप से सहभागी बनना होगा और इसके लिए स्त्री पुरुष
को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझे और पुरुष भी स्त्री को एक देह नहीं, स्त्री रूप में एक इंसान स्वीकार करे। स्त्री की आज़ादी और खुले आकाश में उड़ान
की शर्त उत्पादन में उसकी भूमिका हो। स्त्री की असली आज़ादी तभी होगी जब उसके दिमाग
की स्वीकार्यता हो, न कि केवल उसकी देह की। अन्ततः कहीं ऐसा न
हो कि स्त्री स्वतन्त्रता और स्वाधीनता का पर्व सशक्तिकरण की अवधारणा पर खड़ा होने के
पूर्व ही विनष्ट होने लगे और आने वाली पीढ़ी फिर वही सदियों पुराना प्रश्न दोहरा दे
कि ‘मैं कौन हूँ?’
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