राजनीति पर निगाह भी
सब रखेंगे, राजनीति की चर्चा भी चाय-पान की दुकान पर करेंगे, राजनैतिक विश्लेषक
बनके अपने को बुद्धिजीवी साबित करेंगे, राजनैतिक आकलन करके लोगों पर रोब ज़माने की
कोशिश की जाएगी और अंत में निष्कर्ष निकालेंगे कि राजनीति सबसे गन्दी चीज है. बात-बात
में उस नेता का महिमामंडन किया जायेगा जिसने करोड़ों का घोटाला किया हो, दस-बारह
मामले अपहरण, हत्या, बलात्कार, डकैती के जिस पर लगे हों, जिस नेता को माफियागीरी
करने के लिए जाना जाता हो वो इनकी बैठकों में चर्चा का विषय होता है. गर्व से
चमकती आँखें और बारम्बार चौड़े होते सीने को देखकर ही समझा जा सकता है कि ऐसे
राजनैतिक विश्लेषकों के लिए राजनीति के क्या मायने हैं.
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वर्तमान राजनीति की
सबसे बड़ी बिडम्बना यही है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को राजनीति में पारंगत समझता
है और खुद को सर्वश्रेष्ठ राजनैतिक विश्लेषक मानता है. इसके साथ जब एकपक्षीय आकलन,
पूर्वाग्रह जुड़ जाता है तो वो विद्रूपता की हद तक पहुँच जाता है. इसी विद्रूपता ने
राजनीति को भी कलंकित किया है. घनघोर बुराई होने के बाद भी किसी भी दल के
प्रतिनिधियों, पदाधिकारियों द्वारा अपने दल के पक्ष में ही बयानबाज़ी की जाती है,
ऐसा करना उनका दायित्व अथवा मजबूरी भी हो सकती है. इसके उलट किसी भी दल के
घोटालों, भ्रष्टाचार, काले कारनामों के बाद भी आमजन का नजरिया उस दल के पक्ष में
रहता है तो समझा जा सकता है कि राजनीति की दिशा किस तरफ मुड़ चुकी है. आज एक
राष्ट्रीय दल के अधिसंख्यक नेता, मंत्री, सांसद, विधायक कई-कई घोटालों में,
करोड़ों-अरबों के घोटालों में लिप्त पाए गए हैं, उनकी संलिप्तता के पर्याप्त सबूत
भी जनता के सामने उजागर हुए हैं, इसके बाद भी यदि जनता उन घोटालेबाज़
नेताओं-मंत्रियों के पक्ष में, उस भ्रष्ट दल के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है तो इसे
राजनैतिक नासमझी के साथ-साथ मानसिक दीवालियापन भी कहा जायेगा. ये स्थिति भी
राजनीति को पतन की तरफ ले जाती है.
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आज के इस जागरूक
माहौल में, मीडिया और तकनीकी के दौर में शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो किसी भी राजनैतिक
विचारधारा से खुद को जुड़ा हुआ महसूस न करता हो. ये एक तरह की राजनैतिक जागरूकता
अथवा राजनैतिक सक्रियता कही जा सकती है किन्तु इस सक्रियता और जागरूकता में एक तरह
का पूर्वाग्रह मिलकर इसे स्वच्छ राजनीति के लिए बाधक बना देता है. ये मान लेना कि
सिर्फ और सिर्फ उसका राजनैतिक दल अथवा उसकी राजनैतिक विचारधारा ही सर्वश्रेष्ठ है;
पार्टीहित को देशहित, समाजहित से बढ़कर मान लेना; अपने समर्थक राजनैतिक दल,
राजनीतिज्ञ के तमाम घोटालों, भ्रष्टाचार के बाद भी उसके पक्ष में कुतर्क की हद तक
उतर आना राजनीति की दिशा को भ्रमित करता है. यही भ्रम उन तमाम लोगों को भी भ्रमित
करता है जो राजनीति का आकलन समझकर नहीं, देखकर ही करते हैं.
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ये बात तो सभी को
स्पष्ट रूप से गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि बिना राजनीति के देश, समाज एक मिनट भी नहीं
चल सकता. हमारी विदेशनीति, अर्थव्यवस्था, कानून व्यवस्था, नीतियां, सामजिक सरोकार
आदि-आदि का सञ्चालन सिर्फ और सिर्फ राजनीति के द्वारा ही संभव है. निरपेक्ष भाव से
राजनीति को समझे बिना राजनैतिक विश्लेषण किया जाना संभव नहीं. जब तक आमजन के लिए,
बुद्धिजीवियों के लिए, राजनैतिक विश्लेषकों के लिए जनता से, समाज से, देश से बढ़कर
पार्टीहित होता रहेगा; उसकी भांडगीरी करना बना रहेगा; पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर
कुतर्क करना बना रहेगा; सही को सही, गलत को गलत कहने का माद्दा विकसित नहीं किया
जायेगा तब तक ऐसे लोगों के कारण ही राजनैतिक चरित्रों में गिरावट देखने को मिलेगी;
राजनीति की दिशा गर्त में जाती दिखेगी; राजनीति में गंदगी दिखेगी, राजनीति गन्दी
दिखेगी.
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