गोपीनाथ मुंडे के लोकसभा खर्च सम्बन्धी बयान ने
राजनैतिक हलकों में एक तरह का बवंडर खड़ा कर दिया है. इससे चुनाव में प्रत्याशियों
द्वारा अंधाधुंध खर्च करने की मानसिकता की वर्तमान स्थिति ही उजागर हुई है. चुनाव
आयोग पिछले कई वर्षों से चुनाव में काले धन के उपयोग को लेकर, एक निश्चित सीमा से
अधिक खर्च करने को लेकर चिंतित सा दिखता रहा है. अपनी चिंता को मिटाने और
प्रत्याशियों को चुनाव खर्च से राहत देने के लिए उसके द्वारा लोकसभा चुनाव खर्च की
सीमा को चालीस लाख रुपये तक कर दिया गया. इसके बाद भी एकाध प्रत्याशी ही ऐसे होंगे
जो इस सीमा में ही खर्च करते होंगे अन्यथा की स्थिति में खर्च इससे कहीं अधिक का
कर दिया जाता है, ये बात और है कि चुनाव आयोग के भेजे गए खर्च का ब्यौरा इसी चालीस
लाख में समेट दिया जाता है. चुनाव आयोग भी इस बात को भली-भांति जानता, समझता है और
इसी कारण से उसके द्वारा हाल ही में चुनाव खर्च सीमा और बढ़ाये जाने के संकेत मिले
थे.
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लोकसभा
का चुनाव और खर्च सीमा चालीस लाख रुपये...सोचा जा सकता है कि चुनाव में धन को स्वयं
आयोग ने किस तरह से प्राथमिकता प्रदान की हुई है. इसके बाद भी इसके बढ़ाने की बात
राजनीतिक दलों की तरफ से, राजनीतिज्ञों की तरफ से की जाती रही है. आज के हालातों
में क्या वाकई चालीस लाख रुपये में लोकसभा का चुनाव लड़ना मुश्किल हो गया है? क्या
आज के समय में चुनाव लड़ना धनबल-बहुबल के लिए ही संभव रह गया है? आखिर इतनी बड़ी
राशि को चुनाव में किस तरह और कहाँ खर्च किया जाता है? कहीं इतनी बड़ी धनराशि ने ही
तो चुनाव के समय दारू-मुर्गा-धन के चलन को तो शुरू नहीं किया? क्या अंधाधुंध प्रचार
सामग्री, गाड़ियों की भरमार, अवैध असलहों का प्रदर्शन आदि के लिए ही आयोग इतनी बड़ी
राशि खर्चने की छूट प्रत्याशियों को देता है? क्या ये आम जन का चुनावों में उसकी
प्रत्याशिता को रोकने का कोई षडयंत्र तो नहीं है? ये सवाल और इन जैसे अनगिनत सवाल
ऐसे हैं जो लोकतंत्र में चुनाव की, राजनीतिज्ञों की, राजनैतिक दलों की, आयोग की
भूमिका को संदेहास्पद बनाते हैं. इसी संदेह के बीच लाखों रुपये की धनराशि का होना
मतदाताओं को भी संदिग्ध बनाता है.
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देश
में जहाँ एक तरफ चुनाव सुधारों की बात की जा रही है; घटते मतदान प्रतिशत पर चिंता
जताई जा रही है; राईट तो वोट, राईट तो रिकॉल, राईट तो रिजेक्ट जैसी शब्दावली पर
चिंतन-मनन किया जा रहा है; स्वच्छ, निर्भय, निष्पक्ष मतदान के प्रयास किये जा रहे
हैं; चुनाव को राष्ट्रीय महत्त्व के समान
बताते हुए लोगों को जागरूक करने के कदम उठाये जा रहे हों; चुनावों में काले धन को
रोकने की कवायद की जा रही हो; हर आम-ओ-खास को चुनावी प्रक्रिया में सहभागिता करने
के अवसर प्रदान किये जाने की राह बनाई जा रही हो तब आयोग का चुनावी खर्च सीमा को
(लोकसभा-विधानसभा चुनावों में) बढ़ाये जाने की बात करना उक्त सारे प्रयासों पर पानी
फेरने के समान लगता है. आज उच्च तकनीक के कारण, परिवहन के उन्नत साधन के कारण, संचार
प्रणाली के सशक्त होने के कारण जब एक-एक मतदाता तक पहुंचना पहले से कहीं आसान हो
गया है, तब चुनाव खर्च की सीमा का इतना अधिक होना (इसको और बढ़ाने की बात करना) लोकतान्त्रिक
मूल्यों को, निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया को खतरे में डालने जैसा ही है. इस तरह के
क़दमों से उन धनबलियों-बाहुबलियों को प्रोत्साहन मिलेगा जो येन-केन-प्रकरेण समूची
चुनावी प्रक्रिया को, समूचे लोकतंत्र को अपनी गिरफ्त में करने की विकृत मानसिकता
पाले बैठे हैं.
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