कुंडा में पुलिस अधिकारी की हत्या से सियासी हलकों में एक
तरह का उफान सा आ गया है। सरकार के बाहुबली मंत्री राजा भैया को इस हत्या में
आरोपी माना-समझा जा रहा है और प्रथम दृष्टया सरकार ने अपनी कार्यवाही करते हुए
राजा भैया का इस्तीफा ले लिया है। इस कांड की जांच सीबीआई से करवाये जाने की
संस्तुति के लिए भी प्रदेश सरकार ने केन्द्र सरकार को लिख भेजा है। अपनी तरफ से
शासन-प्रशासन अपना-अपना काम करने में लगे हुए हैं; मीडिया अपना काम करने में लगी है; तमाम विपक्षी राजनैतिक दल अपना काम करने में व्यस्त हैं; सम्बन्धित मृतक के परिवारीजन अपना काम करने में लगे हैं और
इन सारे कामों के परिणाम को सभी अपने-अपने तरह से आते हुए भी देखना चाहते होंगे।
यह घटना कहीं न कहीं राजनैतिक अपराधीकरण की ओर इशारा करती है तो इसके साथ में
पुलिस के अधिकार,
उसकी शक्ति, उसकी स्वतन्त्रता,
उसकी राजनैतिक हदबन्दी की ओर भी इशारा करती है। लगभग हर ओर
से पुलिस के हाथ-पैर को राजनैतिक दलों, बाहुबलियों द्वारा बांधे रखने की चर्चा होती दिख रही है। यह कदाचित अपने आपमें
एक बहुत बड़ा सत्य है कि बहुसंख्यक मामलों में पुलिस प्रशासन स्वतन्त्र रूप से
अपराधियों के खिलाफ अपनी कार्यवाहियों को नहीं कर पाता है। इसी का दुष्परिणाम अनेक
बार यह होता है कि यही अपराधी राजनैतिक संरक्षण पाकर पुलिस प्रशासन पर हावी हो
जाते हैं और पुलिस की कार्यप्रणाली को, कार्यवाही को प्रभावित करते हैं।
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पुलिस के साथ घटित होता यह एक पक्ष है और इस पक्ष के साथ यह
भी ध्यान रखना होगा कि आज आम आदमी के बीच पुलिस की छवि कितनी अपनत्व भरी है। पुलिस
की स्वतन्त्रता,
उसकी कार्यशैली, कार्यप्रणाली का उन्मुक्त रूप राजनैतिक व्यक्तित्व के सामने, राजनैतिक दबंगई के समक्ष, राजनैतिक दलों के साये में बंधा-बंधा, सिसियाया सा,
घुटन भरा सा महसूस होता है, वही रूप किसी भी आम आदमी के विरुद्ध कार्यवाही करते समय, किसी भी निर्दोष को फंसाते समय, हवालात में रात-रात भर बेल्टों-डंडों से मारते समय, रिक्शेवालों, खोमचे वालों,
पटरी पर व्यवसाय करते लोगों से वसूली करने में, महिलाओं-बच्चों पर हाथ छोड़ने में भरपूर स्वतन्त्रता का अनुभव
करता है। आये दिन देखने में आता है कि आम आदमी को सड़क पर चलते हुए किसी भी स्थानीय
अपराधी से,
स्थानीय दबंग नेता से उतना डर नहीं लगता है जितना कि सड़क पर
किसी भी पिकेट के रूप में तैनात दो सिपाहियों से लगता है; कोबरा मोटरसाइकिल पर घूमते दो सिपाहियों से लगता है। कोई भी
सम्मानित शहरी दबंगों की रिवॉल्वर, पिस्टल,
बन्दूक का सामना सीना ठोंककर करने की दम रखता है वही
व्यक्ति पुलिस के एक पांच फीट के डंडे से घनघोर रूप से घबराता है।
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कानून के प्रहरी जब खुद को ही कानून समझने लगे हों; कानून का पालन करने के नाम पर खुलेआम दबंगई, गुण्डागर्दी दिखाने लगे हों; रक्षक के स्थान पर भक्षक के रूप में नजर आने लगे हों तो सोचा जा सकता है कि आम
आदमी में,
एक भीड़ में पुलिस के प्रति क्या भावबोध पनप रहा होगा। किसी
भी साधारण सी चौकी में,
थाने में, कोतवाली में
साधारण सी रिपोर्ट लिखवाने के लिए जाने पर आम आदमी को किस तरह से अपनी
माताओं-बहिनों से मुंहजबानी रिश्ता यहां जुड़वा दिया जाता है, यह समझाने की आवश्यकता नहीं है। यही कारण है कि विगत कुछ
वर्षों से जनआक्रोश का शिकार पुलिस प्रशासन को होना पड़ा है। कुंडा की इस घटना में
पुलिस अपनी कार्यवाही कर रही है और चूंकि यह मामला अब हाईप्रोफाइल हो गया है इसलिए
पुलिस प्रशासन के आला अधिकारियों को भी इसमें प्रत्यक्ष रूप से शामिल होना पड़ रहा
है। पुलिस प्रशासन को चाहिए कि वह आम आदमी के मन में बैठी पुलिसिया आतंक की छवि को
दूर करने का प्रयास करे। जनमानस और पुलिस में एक प्रकार का समन्वय बनाये जाने का
उपक्रम किया जाये। पुलिस के साये में आम आदमी सुरक्षा महसूस करे न कि असुरक्षा और
जिस दिन वह ऐसा करने में सफल हो जाती है किसी भी राजनैतिक बाहुबली की हिम्मत नहीं
कि किसी भी पुलिसकर्मी को अपने इशारे पर नचा ले; उसकी स्वतन्त्रता को बंधक बना ले; उसको घुटन भरी जिन्दगी जीने पर मजबूर करे। इसे ठीक दूसरी ओर यह भी सत्य है कि
जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक पुलिस प्रशासन को जाने-अनजाने भीड़ के आक्रोश का, जनमानस के गुस्से का सामना करना ही पड़ेगा और आक्रोश, गुस्सा किसी भी रूप में हो, हानिकारक ही होता है।
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