आशीष नंदी के बयान के बाद से उनके पक्ष और विपक्ष में एक
प्रकार की हवा चल निकली और इस हवा से उनके बयान का विरोध कर रहे लोगों की भी एक
दूसरे प्रकार की हवा निकलने लगी। चूकि नंदी को विशेष बुद्धिजीवी वर्ग विश्व का
प्रमुख समाजशास्त्री तो मानता ही है साथ ही उन्हें पिछड़ा/दलित पक्षधर भी मानता है।
इधर देखने में आया है कि साहित्यकारों में, मीडियाकर्मियों में,
राजनीतिज्ञों में, लेखकों में,
सामाजिक कार्यकर्ताओं में, समाजशास्त्रियों में पिछड़े/दलित वर्ग का पक्षधर होने का फैशन सा चल पड़ा है।
इनमें से अधिसंख्यक को देखो तो वह पिछड़ा/दलित वर्ग का हितैषी होने का एक मुखौटा सा
लगाकर अपने आपको प्रस्तुत करता है। उसके प्रस्तुतिकरण का ढंग इस तरह का होता है
मानो दलित/पिछड़ा वर्ग का हितैषी होना बहुत बड़ा काम है और जो ऐसा नहीं कर सका वो
समाज का सबसे बड़ा दुश्मन है, अपने आपमें
बुद्धिजीवी नहीं है। बहरहाल...आशीष नंदी के बयान के बाद अपने बचाव में उन्होंने
स्वयं ही यह साबित करने का प्रयास किया है कि जो कुछ भी उन्होंने कहा वो
दलितों/पिछड़ों के पक्ष की ही बात है। उनके अलावा तमाम सारे सीनियर फैलो टाइप के
लोग भी यह साबित करने में कलम-दवात लेकर जुट गये कि नंदी ने जो कहा वा
दलितों/पिछड़ों के हित की बात है, उनके समर्थन
की बात है।
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हो सकता है कि आशीष नंदी के बयान का भावार्थ समझने में बहुत
से लोगों को समस्या हुई हो,
भ्रान्ति हुई हो और उसी के परिणामस्वरूप इस तरह का विवाद
सामने आया। अपनी एक प्रकार की स्वीकारोक्ति के बाद नंदी का स्पष्टीकरण तो और भी
विवादास्पद सा समझ में आया। हम न तो उनके समकक्ष हैं और न ही स्वयं में दलित/पिछड़ा
हितैषी का मुखौटा लगाकर घूमते हैं, ऐसे में हो सकता है कि उनके स्पष्टीकरण को भी सही रूप से पकड़ न पाये। उनका
पुनर्कथन का भावार्थ यह था कि भ्रष्टाचार को अभी हाल-फिलहाल दूर कर पाना सम्भव
नहीं तो इसे स्वीकार कर लेना ही उचित है। नंदी जी ने वाकई मार्के की बात कही है, बिलकुल दुनिया के प्रतिष्ठित समाजशास्त्री की भांति। अब यह
अदना सा लेखक दुनिया का क्या, न तो राष्ट्रीय
स्तर पर,
न प्रादेशिक स्तर पर और न ही स्थानीय स्तर पर समाजशास्त्री
के रूप में ख्याति प्राप्त कर पाया है (कुख्याति भी प्राप्त नहीं कर सका) किन्तु
जितना समाजशास्त्र पढ़ा है,
जितना सामाजिक कार्य किया है, जितना समय समाज के बीच लगाया है, उसके अनुसार एक-दो बातें तो बड़ी ही स्पष्ट रूप से समझ में आई हैं। पहली तो यह
कि अपने आपको आसानी से इस समयोजित करने की स्थिति में ढाल लेना चाहिए और विपरीत
परस्थितियों को सुधारने का प्रयास नहीं करना चाहिए। दूसरे यह कि जो अव्यवस्था, विसंगति आप सुधार न सकें उसको स्वीकार कर लेना चाहिए। अब
ऐसे में हमारी समझ में जो आया उसे यहां स्पष्ट करने से और समाज द्वारा स्वीकार कर
लेने से तमाम सारी समस्याओं का निपटारा तुरन्त हो जायेगा।
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1. हम सभी को यह मान लेना चाहिए कि महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार तो होगा ही। उनके
साथ छेड़छाड़ की,
हिंसा की, बलात्कार जैसी
घटनायें होंगी ही। ऐसे में बजाय सुधार के प्रयास करने के इसे स्वीकार कर लेना
चाहिए क्योंकि सुधार में अभी बहुत समय लगेगा।
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2. यह भी मान लेना चाहिए कि पुरुष प्रधान समाज में बहुत से लोग ऐसे हैं जो किसी
भी रूप में बेटी को अपने घर में पैदा नहीं होने देना चाहते हैं। ऐसे में कन्या
भ्रूण हत्या,
कन्या हत्या होनी ही होनी है। अभी तक तमाम सारे कानूनों के
बाद भी इसे रोका नहीं जा सका है और अभी हाल-फिलहाल रोक पाना सम्भव भी नहीं दिखता
तो लड़कियों की हत्याओं को स्वीकार कर लेना चाहिए।
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3. वर्तमान युवा लड़के आधुनिकता के वशीभूत होकर किसी भी रोकटोक को मानना पसंद नहीं
करते हैं। उसे रोक पाना,
समझाना दुष्कर कार्य लगता है। ऐसे में हमें स्वीकार कर लेना
चाहिए कि वे अपराध करेंगे,
दारू पीकर सड़कों पर उपद्रव करेंगे, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करेंगे, डग्स लेंगे और मजे के लिए कभी-कभार किसी का मर्डर भी कर
दिया करेंगे।
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4. कानून को अपना काम करने के लिए पर्याप्त सबूतों की, तथ्यों की आवश्यकता होती है। कई बार शातिर से शातिर, कुख्यात अपराधी सिर्फ इस कारण से छूट जाते हैं कि उनके
विरुद्ध पर्याप्त सबूत नहीं मिल सके। ऐसा अधिसंख्यक रूप से होता है तो हमें
स्वीकार कर लेना चाहिए कि सबूतों की कमी आगे भी रहेगी और कानून बेबस होकर सिर्फ
तमाशा देखा करेगा। अपराधी छूट-छूट कर पुनः अपराध करने का स्वतन्त्र होंगे और मासूम
हमेशा की तरह पिसते रहेंगे।
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5. ऐसा वर्षों से होता रहा है कि कानून, पुलिस,
प्रशासन सदैव से उसके साथ रहा है जो रसूखदार है। ऐसा
वर्तमान में और भी तीव्रतम रूप से होने लगा है, दिखने लगा है। ऐसे में एक आम आदमी के लिए न्याय की आस लगाना बेवकूफी से अधिक
कुछ भी नहीं। इस कारण हमें इस बात को भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि न्याय, पुलिस, प्रशासन अभी
आम आदमी के लिए सुलभ नहीं है।
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और भी बहुत कुछ है जिसे स्वीकार कर लेना अपने जीवन को
सुरक्षित बनाने के लिए अनिवार्य है; अपनी जीवन-शैली की खुशहाली के लिए भी अनिवार्य है। अभी इतना ही स्वीकार किया
जाये,
यदि सभी कुछ अभी स्पष्ट कर दिया तो कहीं हम भी आशीष नंदी की
तरह दुनिया के प्रख्यात समाजशास्त्रियों में सम्मिलित न कर दिये जायें। अभी इतना
ही,
शायद छोटे-मोटे समाजशास्त्री बनने का सौभाग्य हमें भी मिल जाये।
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अच्छा आलेख !! माननीय आपने जो शोशल शेयर के लिए जो लगा रखें हैं उनसे आपके लेख को पढ़ने में असुविधा हो रही है क्योंकि बटनों के बीच में इतनी दुरी भी नहीं है कि लेख को ऊपर निचे करके भी पढ़ा जा सके इसलिए अगर आप साइड वाले शेयर बटन को रखकर दूसरे को हटा देवें तो अच्छा रहेगा !!
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