नार्वे के एक भारतीय दम्पत्ति को अपने ही बच्चे के साथ
मार-पीट की घटना के कारण सजा की सामना करना पड़ा। इससे पूर्व भी एक और भारतीय
दम्पत्ति को ऐसे कानूनी दांवपेंचों का सामना करना पड़ा था। बहुत से लोगों ने भारतीय
सरकार से इस बात की अपेक्षा की कि वो इस पूरे मामले में हस्तक्षेप करे। इस अपेक्षा
के साथ ही हम यह भूल जाते हैं कि प्रत्येक देश के अपने कुछ कानून हैं,
उस देश की कुछ कानूनी प्रक्रिया होती है,
जिसका पालन वहां के नागरिकों को करना ही करना होता है। यदि
नार्वे के कानून में ऐसी कोई बाध्यता है कि वहां बच्चों के साथ दुर्व्यवहार किया
जाना कानूनी अपराध है तो भारतीय सरकार इस मामले में क्या हस्तक्षेप करती?
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यह तो घटना का एक पक्ष है, दूसरा पक्ष यह है कि हम भारतीय अपने प्रत्येक कार्य को
विदेश से प्रेरित करने का प्रयास करने लगते हैं। इस बात के एक-दो नहीं कई-कई
उदाहरण हैं जबकि हमने विदेशियों के चाल-चलन को अपने देश में भी लागू करवाये जाने
के लिए सड़कों पर आन्दोलन का सहारा लिया तो कानूनी प्रक्रिया का भी सहारा लिया।
तर्कों के सहारे बात को सही साबित करने की कोशिश की तो कुतर्कों के द्वारा भी अपनी
बात को सही ठहराने का प्रयास किया। हमारे देश का योग जब विदेश से ‘योगा’ होकर लौटा तो हमने उसे सहर्ष स्वीकार किया;
हमारे महात्मा बुद्ध जब विदेशियों की धरती पर विकसित होकर ‘लॉर्ड बुद्धा’ के रूप में वापस भारत आये तो घर-घर में सराहे गये। बहरहाल,
हमने विदेशियों के चालचलन को अपना कर ही अपने देश में लिव
इन रिलेशनशिप की वकालत की, उन्हीं की जीवनशैली की नकल करके हमने समलैंगिकता को कानूनी
रूप दिलवाने के लिए सड़कों पर आन्दोलन किये; इन विदेशियों की देखा देखी हमने उस स्त्री-विमर्श का शिगूफा
छोड़ा जो हमारे यहां सैकड़ों वर्षों की थाती के रूप में सुरक्षित था;
इन्हीं विदेशियों के चाल-चलन को देखकर,
जीवनशैली को देखकर ही हमने एड्स जैसी बीमारी को घर-घर में
घुस जाने दिया।
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यदि इन विदेशियों से हमें इतना मोह है,
इनकी जीवनशैली हमें इतनी भाती है तो हमने इनके अनुशासन को,
इनकी कानूनी बाध्यता को, इनके नियम-कानूनों को स्वीकार करने में सहजता का परिचय
क्यों नहीं दिया? हममें में से बहुत से लोग आये दिन विदेश की सैर करके लौटते
हैं और फिर वहां के नियमों-कानूनों की बढ़ाई करते नहीं थकते हैं। यही लोग गर्व से
बताते हैं कि वहां सार्वजनिक स्थल पर थूकने पर जुर्माना लग जाता है;
निर्धारित स्पीड से अधिक में गाड़ी चलाने पर जुर्माना लग
जाता है;
गाड़ी गलत पार्क करने पर जुर्माना लग जाता है....फलां-फलां
काम करने पर जुर्माना लग जाता है और फिर वही लोग भारत में आकर क्या करते हैं?
जगह-जगह थूक-थूक कर चित्रकारी करना,
गाड़ी को अंधाधुंध गति से भगाना,
जहां मर्जी आये वहां गाड़ी खड़ी कर देना और भी यथासम्भव हो
सके,
उन कानूनों की धज्जियां उड़ाना। आखिर उनके दिमाग में विदेशी
कानूनों की बढ़ाई करने के साथ अपने देश के कानूनों का सम्मान क्यों नहीं कौंधता है?
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इस संदर्भ में यदि हम नार्वे के कानून को देखें तो आज इसकी
महती आवश्यकता भारत देश में है। यहां बाल मजदूरी की स्थिति बड़ी विकट है,
इन बच्चों के साथ कैसा सलूक किया जा रहा है,
यह किसी से भी छिपा नहीं है। इसके अलावा अधिकांश माता-पिता
द्वारा अपने बच्चों के साथ पाशविक रूप में व्यवहार किया जाता है। आये दिन अपने
बच्चों,
इनमें लड़के, लड़कियां दोनों शामिल हैं, को इस कदर मारा-पीटा जाता है कि कइयों की मौत तक हो जाती
है। कई-कई दिनों तक भूखा रखना, जबरदस्ती काम करवाना, शरीरिक अत्याचार करना, आग से जलाना आदि घटनाओं का होना यहां आम बात है। नार्वे की
तरह के सख्त कानून की यहां भी आवश्यकता है जो बच्चों को उनके क्रूर माता-पिता से
बचा सके। इसके लिए क्या उन लोगों की ओर से पहल होते दिखेगी जो समलैंगिकता को
कानूनी बनाये जाने के लिए सड़कों पर चीख-चिल्ला रहे थे;
क्या उन महिला संगठनों से आवाज उठती दिखेगी जो महिलाओं के
लिए शराब ठेकों के लाइसेंस दिये जाने की मांग करने को अदालत तक गये थे;
क्या वे लोग भी इसके लिए सामने आते दिखेंगे जो अपने नाजायज
शारीरिक सम्बन्धों को जायज बताने के लिए तमाम कुतर्कों का सहारा लेते दिखते है?
क्या ऐसी जागरूकता लाने वाली स्थिति के लिए हम विदेशियों की
नकल नहीं करेंगे? क्या विदेशियों की नकल केवल शारीरिक सौन्दर्य को पुष्ट
बनाने के लिए, सेक्स के लिए ही है? जागो भारत जागो।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
अच्छा आलेख है।
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