आज भी याद है वर्षों पुराना वह दिन जब हम लोगों को खबर मिली कि हमारे सबसे छोटे चाचाजी का तबादला बस्तर के सुदूर अंचल सुकमा में कर दिया गया है। हम सभी को लग रहा था जैसे कहीं देश से दूर भेजा जा रहा हो उन्हें, पता नहीं क्यों एक अजीब सा डर सभी के मन में समाया हुआ था। हालांकि उस समय आज के जैसी नक्सलवादी हिंसात्मक घटनाओं की अधिकता नहीं थी, इसके बाद भी बस्तर के नाम से एक प्रकार का आदिवासी माहौल दिमाग में घर कर जाता था। फिल्मों, सीरियलों के वे दृश्य याद आ जाते जिनमें वहां के इंसान नंगे बदन, हाथों में हथियार लिये शहर से आये लोगों को पकड़ने, बंधक बनाने, मार डालने का काम करते हैं।
बहरहाल चाचाजी बैंक की नौकरी में वहां तीन-चार वर्ष अच्छी तरह से बिताकर वापस आ गये। उनके और चाचीजी के द्वारा वहां के हाल जानने के बाद वहां के लोगों के बारे में ज्ञात हुआ। उनके अनुभवों के अलावा बस्तर के बारे में बताने का काम समाचार-पत्रों ने, मीडिया के द्वारा किया गया। स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा के लिए नक्सलियों का आना, सरकार द्वारा स्थानीय निवासियों का शोषण, बस्तर में हो रहे अत्याचार और नक्सली हिंसा को मीडिया द्वारा इस तरह दिखाया गया कि लगा कि वहां सिर्फ और सिर्फ अत्याचार मचाया जा रहा है, शासन-प्रशासन द्वारा तानाशाही चलाई जा रही है।
एक आम भारतीय के दिलो-दिमाग पर पुलिस प्रशासन की जो छवि बनी हुई है, उसका नृशंसतापूर्ण, हैवानियत भरा रूप बस्तर में मीडिया के द्वारा दिखाया गया है। समझ में भी आता है कि जो व्यक्ति बस्तर को दूर से देखकर उसकी छवि का निर्धारण करेगा वह वहां तैनात पुलिसवालों के प्रति क्या सोच रखेगा। गरीब बस्तरवासियों को लूटना, उन्हें तंग करना, बेवजह मारपीट करना, निरपराधों का एनकाउंटर कर देना, पुलिस थानों-चौकियों में मार-मार कर अधमरा कर देना आदि-आदि ही बस्तर की पुलिस की पहचान बन गई है या कहें कि मीडिया के द्वारा बना दी गई है। हालांकि हमने कभी नक्सली हिंसा का समर्थन नहीं किया, जब भी कोई हमला हुआ, नक्सलियों ने नरसंहार सा किया, पुलिस अथवा सेना के जवानों को मारा, तब-तब हमने विरोध भी किया इसके बाद भी बस्तर में तैनात पुलिस प्रशासन के प्रति तनिक सहानुभूति भी नहीं जागी। इसके पीछे सम्भवतः पुलिस का वो चेहरा रहा होगा जो कि आये दिन सड़क पर दिखाई देता है। हां, उनके परिवार के प्रति एक अजब सा दर्द दिल में उमड़ता-घुमड़ता रहता था।
ये तो अच्छा हुआ कि अपने अपार स्नेह से अभिसिंचित करके ख्यातिलब्ध, वरिष्ठ पत्रकार तथा तेजतर्रार लेखन के लिए भी विख्यात भाई अनिल पुसदकर जी ने अपनी पुस्तक ‘क्यों जाऊँ बस्तर? मरने!‘ पढ़ने को भेज दी। इस पुस्तक के पढ़ने के बाद लगा कि सिर्फ और सिर्फ पुलिस प्रशासन को कोसना ही उचित नहीं है। मीडिया द्वारा दिखाये जा रहे सत्य का ही पूर्ण सत्य मान लेना भी उचित नहीं है। अनिल भाई ने अपनी पुस्तक के तीन पात्रों के द्वारा बस्तर के सत्य को, वहां तैनात पुलिस प्रशासन के सत्य को, देशभर में मीडिया के द्वारा दिखाये गये सत्य को इस तरह से सामने रखा है कि दिमाग पर छाये कुहासे को कुछ हद तक छँटने का मौका मिला।
अनिल पुसदकर जी के द्वारा लिखित इस पुस्तक में प्रशंसनीय और आँखें खोलने वाले तथ्य प्रत्येक पृष्ठ पर दिये गये हैं। प्रत्येक पृष्ठ ने अपने आपमें शहीदों को छिपा रखा है तथा बस्तर क्षेत्र में हुई उनकी शहादत को भी सामने रखा है। अनिल भाई के द्वारा पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर नक्सलियों द्वारा सुरक्षाबलों पर किये हमलों और इनमें मारे गये/घायल हुए जवानों की संख्या का प्रस्तुतिकरण समूचे परिदृश्य को स्पष्ट कर देता है। वे अपनी इस पुस्तक में पुलिस प्रशासन की समस्याओं को प्रस्तुत करने का अथवा उनका समर्थन करने का कार्य नहीं करते हैं वरन् अपनी दृष्टि से उनके सवालों को सामने रखने का कार्य करते हैं। जिस पत्रकारिता से वे पिछले बीस वर्षों से जुड़े हैं, उसी के एक दूसरे पहलू पर चोट सी करते दिखते हैं। वे कोई समाधान नहीं सुझाते हैं वरन् अपने पात्रों के द्वारा उठाये गये सवालों के पीछे से एक और सवाल खड़ा करके इसका जवाब देने की जिम्मेवारी सारे समाज पर छोड़ देते हैं।
अपने अनुभवों के द्वारा, अपनी पारखी दृष्टि के द्वारा उन्होंने जो देखा, उस सत्य को एक पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया। उनका प्रयास वाकई सराहनीय है किन्तु इसे और व्यापक बल तभी मिलेगा जब समाज के द्वारा, जनप्रतिनिधियों के द्वारा, मीडिया के द्वारा, सरकार के द्वारा, हमारे द्वारा उसका जवाब, सार्थक और सकारात्मक जवाब खोज लिया जायेगा। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक बस्तर जाने वाला प्रत्येक पुलिस वाला एक ही सवाल करेगा ‘क्यों जाऊँ बस्तर? मरने!‘
हमेशा यही होता है, सभी के मुखौटे नहीं उतारे जाते हैं ।
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