शीर्षक देखकर चौंक गये क्या? चौंकना तो नहीं चाहिए क्योंकि आजकल इससे अधिक खुलापन हमारे साहित्य में, हमारी फिल्मों में हमारे रोजमर्रा के जीवन में देखने को मिल रहा है। खुलेपन से अकेले काम नहीं चलता इसलिए उसे अंग्रेजियत का मुलम्मा चढ़ाना भी आवश्यक हो जाता है और इस कारण हम इस खुलेपन को कहते हैं ‘बोल्ड’...अब तो काम बनेगा ही बनेगा। बहुत वर्षों पहले टी0वी0 पर चैनलों की बरसात के बीच एक विदेशी सीरियल का नाम सुना था ‘बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल’..आज उसका अर्थ भली-भाँति समझ में आ गया है। वैसे यदि हमारी अंग्रेजी समझने की समस्या न होती तो शायद उसी समय समझ गये होते पर क्या करें अपनी हिन्दुस्तानी ‘समझदानी’ का जो चाय छानने की ‘छन्नी’ की तरह से या फिर ‘मच्छरदानी’ की तरह की छेदयुक्त है, जिसमें बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल जैसी समकालीन काम की बात टिकती ही नहीं।
अब देखिये कहाँ नहीं है खुलापन, कहाँ नहीं है बोल्डनेस, जिस तरफ निगाह दौड़ाइये, वहीं यह सब दिखाई देने लगता है। अब ‘सेक्सी’ कह देना किसी लड़की को छेड़ना नहीं वरन् विशुद्ध अंग्रेजी में उसे ‘कम्प्लीमेंट’ देना है। बच्चा भी एक फिल्म देखकर आता है और कहता है कि पापा आज आप बहुत ‘कमीने’ लग रहे हो। बिटियारानी भी ड्रेस जैसी ड्रेस पहन कर मम्मी के गले लगके पूछती है क्या मैं सेक्सी दिख रही हूँ। बेटा भी अपनी जींस के भीतर से किसी ब्रांडेड अंडरवियर की स्ट्रिप से नीचे तक के हिस्से को झाँकने की हालत में रखकर ‘चिल यार’ कहता हुआ अपने पिता को ओल्ड फैशन का करार देता है। साहित्य समाज का आइना कहा गया है तो ऐसे में आइने में वही शक्ल दिखाई न दे तो बेचारे उस आइने का क्या काम।
समाज में जो बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल दिखाई दे रहा है, खुलापन और आधुनिकता दिख रही है वह साहित्य में प्रगतिशीलता के नाम पर बहुत पहले दिखाई देने लगी थी। प्रगतिशील, प्रगतिशीलता, आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता आदि ऐसे शब्द हैं जिनकी आड़ में आप किसी दूसरे को पिछड़ा साबित कर सकते हैं। यदि आप उसे अपनी बातों से, अपने कुतर्कों से, अपने दिये उदाहरणों से संतुष्ट नहीं कर पा रहे; उसको पिछड़ा साबित नहीं कर पा रहे तो तुरन्त बिना देर किये खुजराहो की मूर्तियों के, वातस्यायन के कामसूत्र के उदाहरण देकर उसका मुँह बन्द कर दीजिये। इसके बाद भी यदि वह न माने तो आप उसे बाबा आदम के जमाने का घोषित करके अपने बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल वाले खुलेपन को उसके सामने उड़ेल दें।
प्रगतिशीलता के नाम पर साहित्य में ऐसे-ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जिनको संकलित करके यदि एक पुस्तक का रूप दिया जाये तो अच्छा-भला विश्वस्तरीय कोकशास्त्र तैयार हो सकता है। ऐसे लोगों में हताश, निराश, कुंठित लोगों की संख्या अधिक है। इसमें ऐसे साहित्यकार हैं जो वर्षों तक एक बोल्ड एण्ड (नॉन) ब्यूटीफुल लेखिका को पटाने के चक्कर में रहे और असफलता मिलने पर उसके घर राखी लेकर पहुँच गये। स्वयं खुलासा करते हुए वे काम-कुंठित सम्पादक महाशय तुर्रा इस रूप में देते हैं कि शायद ‘दिन में भैया, रात में सैंया’ वाली बात सही हो जाती। खैर...किसी एक-दो व्यक्तियों, लेखकों, सम्पादकों के उदाहरण देना हमारा मकसद कतई नहीं था। दरअसल अब जबकि समाज में आधुनिकता के नाम पर सब कुछ खुल्लम-खुल्ला होने लगा है; कपड़ों के नाम पर देह-दर्शन (लड़के-लड़कियों दोनों के द्वारा) सहजता से हो रहा है; गालियों का प्रयोग वाक्यों में सहायक क्रिया के रूप में हो रहा है; सम्बन्धों में देह-सेक्स प्रमुखता से हावी हो रही हो वहाँ बेचारे साहित्य से वही सदियों पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं को, संस्कृतियों को ढोने की अपेक्षा क्यों की जाये?
साहित्य भी अब अपने में बदलाव चाहता है, उसकी भी इच्छायें होगी, कुछ अरमान होंगे। वह भी निर्वस्त्र घूमना चाहता होगा; वह भी शारीरिक सम्बन्धों को देखना-दिखाना चाहता होगा; सेक्स की चाह उसको भी होती होगी; स्त्री-पुरुष गोपन रिश्तों के ऊपर से परदे को वह भी उघाड़ना चाहता होगा; घरों के अंदर झाँकता हुआ साहित्य अब पति-पत्नी के निजी कमरे तक जाकर उनके अंतरंग सम्बन्धों का खुलासा करना चाहता होगा; कोमलकान्त भावनाओं की आड़ में वह शब्दों के, बातों के बताशे फोड़ता हुआ कुछ उत्तेजना लाना चाहता होगा और यदि वह ऐसा करना चाहता है अथवा किसी लेखक/लेखिका के द्वारा ऐसा कर भी लेता है तो क्या गुनाह करता है? हमें याद रखना होगा कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है और इस परिवर्तन को स्वीकार करना चाहिए। लेखक समुदाय, पाठक समुदाय के उन अलम्बरदारों को भी सचेत रहना चाहिए जो साहित्य में दिनोंदिन प्रविष्ट होती नग्नता को, खुलेपन को सहज मानव-वृत्ति कहकर इस खुलेपन का, बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल संस्करण का संवर्द्धन, संरक्षण, पोषण कर रहे हैं।
साहित्य के रूप में सृजन करते ऐसे लोग अपनी बोल्डनेस से भरपूर, स्त्री-पुरुष के अंतरंग सम्बन्धों से परिपूर्ण, खुलेपन से रची-बसी रचना को गर्व के साथ क्या अपने बेटे-बेटियों को साथ बिठाकर उसका रसास्वादन करा सकते हैं? यदि वाकई ऐसा हो सकता है तो हम अपनी गँवार टाइप, देहाती टाइप, बाबा आदम के जमाने जैसी ‘समझदानी’ के समस्त छेदों को बन्द करवाने का कार्य करते हैं और ऐसे (अ)महान साहित्य-समुदाय के लिए ‘नंगनाच समूह’ का गठन करते हैं। आइये, आप भी शामिल हों और ऐसे साहित्य की रचना करें जो बोल्ड हो, खुलेपन से भरपूर हो, आधुनिक हो, उत्तर-आधुनिकता से परिपूर्ण हो, स्त्री-पुरुष की अंतरंगता को दिखाती हो, मानव-वृत्ति को उत्तेजित करती हो....कुल मिलाकर कहें कि किसी न किसी रूप में ‘नंगनाच समूह’ के नाम को सार्थक करती हो। तो फिर आपकी सहमति है इस ‘नंगनाच समूह’ के गठन पर?
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चित्र गूगल छवियों से साभार
एकदम सटीक। लेकिन अध्यक्ष/अध्यक्षा किसे बनाओगे या इंटरनेट पर वोटिंग करके चयन किया जाएगा सेंगर जी।
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