चुनावी महासमर अपने पूरे शबाब पर है। राष्ट्रीय स्तर के और प्रादेशिक स्तर के राजनैतिक दलों के साथ-साथ क्षेत्रीय स्तर के दल भी अपनी हनक दिखाने में लगे हुए हैं। किसी को एक परिवार का सहारा दिखाई दे रहा है तो कोई भगवान को अपना खेवनहार बनाये बैठा है। इन्हीं के बीच कुछ दल तो इस तरह से उत्तर प्रदेश की राजनीति में सामने आये हैं और सत्ता तक भी अपनी पहुँच बनाये हैं जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ जातिगत आधार पर स्वयं को खड़ा कर रखा है। ऐसे दलों की शक्ति को देखकर वर्तमान चुनावों में कई और दल इसी जातिगत आधार को अपनी सशक्तता दर्शाकर मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने का कार्य करने में लगे हैं।
देखा जाये तो क्षेत्र विशेष के अनुसार भी विविध दलों ने अपनी पहचान तो बनाई है किन्तु न तो राष्ट्रीय स्तर के दलों में और न ही प्रादेशिक-क्षेत्री दलों में किसी ठोस एजेंडा पर कार्य करने की नीति दिखाई दे रही है। सभी किसी न किसी एक मुद्दे को पकड़ कर केन्द्र सरकार की धुरी माने जाने वाले उत्तर प्रदेश की वैतरणी को पार करने की जुगत कर रहे हैं। मीडिया की ओर से घोषित युवराज भरपूर यात्रायें करने में लगे हैं और उनको सिर्फ और सिर्फ हाथी दिखाई दे रहा है, वहीं दूसरी ओर जाति को आगे करके हाथी की सवारी के द्वारा सत्ता का स्वाद चखने वाली पार्टी की ओर से केन्द्र सरकार में ही खोट दिखाई दे रहा है। किसी समय में रामनामी रथयात्रा के द्वारा जनमानस को अपने पक्ष में करने वाला दल जो नैतिकता की दुहाई देता घूमता फिरता था आज अपराधियों को शामिल करने से भी गुरेज नहीं कर रहा है वहीं साइकिल सवार बेरोजगारी भत्ते के सहारे, विधवा पेंशन के सहारे, महिलाओं के साथ दुराचार के पैकेज के सहारे सत्तासीन होने के सपने देख रहे हैं।
इन दलों के अलावा कुछ दल तो रातों-रात कुकुरमुत्तों की तरह से उग आये हैं और जो सीमित क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति को दर्शाने में लगे हैं। इन दलों को भी भली-भाँति ज्ञात है कि वे न तो सत्ता को प्राप्त कर रहे हैं और जाति-धर्म का कार्ड को खेल रहे हैं, न उस जाति-धर्म विशेष का भला कर पायेंगे, इसके बाद भी उनकी हनक सत्ता स्थापना के समय मोल-भाव करने में अवश्य ही रहेगी। यह एक प्रकार का भटकाव है जो वर्तमान में कमोबेश सभी राजनैतिक दलों में दिख रही है। इसी भटकन का दुष्परिणाम है कि एक दल जहाँ अपने एक सैकड़ा से अधिक निवर्तमान विधायकों के टिकट काट देता है तो वहीं तमाम सारे विधायक ऐसे हैं जो चुनाव लड़ने मात्र की आकांक्षा से एक दल से दूसरे दल की ओर टहलकदमी कर रहे हैं।
राजनैतिक दलों की यह भटकन मतदाताओं को भी भटकाती है और लोकतन्त्र को भी। जातिगत, धर्मगत आकर्षण में बँधा मतदाता एक क्षेत्र विशेष में उभरकर आये दल को प्रमुख बना देता है किन्तु इससे लोकतन्त्र के अस्थिर होने की सम्भावना बढ़ जाती है। वर्तमान में हालात इस प्रकार के हैं कि कोई दल यह दावे के साथ नहीं कह सकता है कि वह पूर्ण बहुमत के साथ अथवा किसी अन्य दल के साथ गठबंधन करके सरकार बनाने जा रहा है। तीन चरणों के मतदान के बाद भी प्रदेश की सरकार का भविष्य स्पष्ट नहीं दिख रहा है। निश्चय ही इस महासमर में भटकती आत्माओं का यह स्वरूप प्रदेश को अस्थिरता प्रदान करेगा और सदन को त्रिशंकु बनाकर जल्द ही मध्यावधि चुनावों की आग में प्रदेश को झोंक देगा।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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कल शाम से नेट की समस्या से जूझ रहा था। इसलिए कहीं कमेंट करने भी नहीं जा सका। अब नेट चला है तो आपके ब्लॉग पर पहुँचा हूँ!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!