यह समाचार उन लोगों के लिए एक सबक हो सकता है जो आज के समय के भी लड़कियों को जन्म लेने से रोकते हैं। इधर देखने में आ रहा है कि पढ़े-लिखे लोग भी कन्याओं का जन्म लेना बोझ समझते हैं। ऐसे लोगों के लिए भी उत्तर प्रदेश के उरई शहर की इन पुत्रियों ने एक इतिहास रचा है। अमर उजाला दिनांक-22 जनवरी 2011 में प्रकाशित समाचार को संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए इतना बताना है कि यहां लड़कियों ने अपनी मां को मुखग्नि दी।
समाचार-पत्र के अनुसार उरई के मुहल्ला उमरारखेरा के एक परिवार में तीन बेटियां और एक बेटा था। बेटा अपनी हरकतों के कारण अपने परिवार से अलग रह रहा था। परिवार की तीन लड़कियों में से दो की शादी हो चुकी थी। सबसे छोटी बेटी ही घर में रह कर अपने माता-पिता की सेवा करती थी।
तीन वर्ष पहले उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। सबसे छोटी पुत्री ने अभी तीन दिनों पूर्व ही अपनी बीमार मां को जिला चिकित्सालय में इलाज के लिए भरती करवाया था। शुक्रवार की सुबह ही उसकी मां की चिकित्सालय में ही मृत्यु हो गई। इसके बाद अन्तिम संस्कार के लिए मुहल्ले के लोगों ने उस मृत वृद्धा के एकमात्र पुत्र को बुलाने को कहा। इस पर उस औरत की पुत्रियों ने मना कर दिया।
इसके बाद दिवंगत हुई महिला की तीनों पुत्रियों ने स्वयं ही उसको कंधा देने और मुखाग्नि देने का विचार किया। इसके बाद तीनों बहिनों ने अपनी माता के दिवंगत शरीर को कंधा दिया। श्मशानघाट में सबसे छोटी पुत्री शोभा ने अपनी मां को मुखाग्नि दी।
आज के दौर में जबकि कागजों पर तो लड़का-लड़की में कोई भेदभाव नहीं समझा जा रहा है किन्तु सामाजिक जीवन में इस भेदभाव को हम कदम-कदम पर देख रहे हैं। ऐसे में इन तीनों बहिनों के द्वारा यह उदाहरण आंखें खोलने वाला है, अनुकरणीय है।
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उरई में इस तरह का अनुकरणीय कदम पुत्रियाँ पहले भी उठा चुकीं हैं। विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।
बेटियाँ भी बेटों से कम नहीं है, यह कर के भी दिखाया है इन्होने वास्तव में अनुकरणीय है. मैं 16 जनवरी 2011 को हरिद्वार में था वहां भी एक बेटी अपने पिता के निमित्त पिण्डदान कर रही थी और इस बात की भी खुशी है कि हरिद्वार के किसी भी पण्डे ने इस बात का विरोध नहीं किया और मेरे पूछने पर बताया कि हरिद्वार में तो अक्सर बेटियाँ पिण्डदान कर जाती है.
जवाब देंहटाएंयह समाज के लिए बहुत ही परिवर्तनीय संकेत साबित हो रहा है.
यह उदाहरण आंखें खोलने वाला है, अनुकरणीय है।
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