28 अप्रैल 2010

बहस कोई भी हो किन्तु तथ्यपरक और पूर्वाग्रह रहित होनी चाहिए...


सवाल मन में न उठे तो मन का भावशून्य और विचारशून्य होना समझ में आता है और विचार आने के बाद उसको सकारात्मक दिशा न मिले तो विचारों का उठना निरर्थक जाता है। अकसर देखा गया है कि हम आपस में अथवा किसी चर्चा के दौरान किसी भी ऐसे विषय पर बहस करना शुरू कर देते हैं जिस पर हमारी गहराई तक पकड़ भी नहीं होती है।


(चित्र गूगल छवियों से साभार)

उदाहरण के रूप में दो-तीन मुद्दों पर ध्यान खींचेंगे--

अभी हाल ही में एक पुस्तक आई थी जिसमें रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध लड़ने की इच्छा को लेकर कुछ सवाल उठाये गये थे। इतिहास में तथ्यों की आवश्यकता तो होती ही है साथ ही इस बात की आवश्यकता भी होती है कि हम उन तथ्यों को बिना किसी पूर्वाग्रह के आत्मसात कर उसमें से सही परिणाम सामने लायें।

रानी झाँसी अंग्रेजों से अपनी झाँसी को प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहीं थीं और ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में हो सकता है कि यह सत्य हो कि यदि अंग्रेजों ने उनको झाँसी लौटा दी होती तो वे युद्ध न करतीं। यदि अपने-अपने हितों को देखकर ही उस समय युद्ध लड़ा गया होता तो भी अंग्रेजों को हम हराने में सक्षम होते। युद्ध चाहे किसी भी तरह से, किसी भी मंशा से लड़ा गया हो किन्तु यह सभी को पता है कि वीरता की कोई दूसरी मिसाल इस रूप में नहीं मिलती है।

रानी झाँसी से सम्बन्धित एक और तथ्य अपनी सत्यता-असत्यता को लेकर बहस के घेरे में हमेशा रहता है। झलकारी बाई के अस्तित्व को लेकर बहुत से विचारक, विद्वान संशय व्यक्त करते हैं। झलकारी बाई को कोरी समाज पूज्य रूप में स्वीकार कर उसके व्यक्तित्व को इतिहास से विस्मृत किये जाने का विरोध करता है। वहीं एक वर्ग ऐसा है जो उसके अस्तित्व पर ही सवाल उठाता है। सत्यता और असत्यता ऐतिहासिक तथ्यों में छिपी है और बिना सत्य की खोज किये दोनों पक्ष अपना-अपना राग अलापते हैं।

इसी तरह का एक और राग राष्ट्रीय स्तर पर आलापा जाता है और वह है राम-शंबूक कांड। पता नहीं सत्य क्या है पर राम के चरित्र को लेकर यहाँ भी बहस होती है। यहाँ हमारा तात्पर्य राम के अथवा शंबूक के चरित्र पर बहस करना-करवाना नहीं है। हमारा मत केवल इतना है कि राम-शंबूक प्रकरण को आज जिस तरह से साहित्य के द्वारा पेश किया जा रहा है वह विद्रूपता की निशानी है।

बहस कोई भी हो किन्तु उस पर तथ्यात्मक और बिना पूर्वाग्रह के होनी चाहिए। इसी बहस की कड़ी में एक विषय और भी शामिल किया जा सकता है और वह है स्त्री-पुरुष विवाद। यह वह बहस है जिसने परिवारों को तोड़ना शुरू कर दिया है, समलैंगिकता को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है। अभी इस पर नहीं...क्योंकि मूल विषय यह है कि बहस तो हो किन्तु उन तथ्यों के आलोक में जो वाकई सत्यता दर्शाते हों। महज किसी धर्म, जाति, वर्ग की भावनाओं को आहत करने के लिए, किसी एक वर्ग विशेष को महिमामंडित करने के लिए इस तरह की बहसों से, कुतर्कों के प्रस्तुतिकरण से समाज का भला नहीं होने वाला।


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