उत्तर प्रदेश में विश्वविद्यालयीन, महाविद्यालयीन परीक्षाओं का संचालन हो रहा है। कॉलेज में होने के कारण परीक्षाओं के समय ड्यूटी पर जाना होता है। अध्यापन के समय से परीक्षाओं का समय एकदम अलग सा होता है। तीन घंटे के दौरान विद्यार्थियों के मनोभावों से परिचित होने का मौका भी मिलता है।
चूँकि कुछ ऐसे कीटाणु शरीर में, दिमाग में पैदा हो गये हैं जिनके कारण शान्त स्थिति में भी मन में एक कीड़ा सा कुलबुलाता रहता है। इसी कुलबुलाहट में हम विद्यार्थियों के हावभाव को जाँचते-परखते रहते हैं। इस जाँच परख के दौरान हमें एहसास हुआ कि अब छात्र हो अथवा छात्रा उनके लिए किसी भी कीमत पर नकल करना अत्यावश्यक सा हो गया है।
परीक्षाओं में नकल करने की मानसिकता में हाल-फिलहाल सुधार के आसार भी नहीं दिख रहे हैं। इस व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए नकल में पकड़े जाने पर नोट लगाये जाने का प्रावधान भी है किन्तु यह व्यवस्था विश्वविद्यालय के क्लर्कों की जेबों को रुपयों से भर देती है।
पिछले वर्ष ही हमारे शहर के एक महाविद्यालय ने नकलविहीन परीक्षा करवाने के दावे को सी साबित करने के लिए लगभग 950 विद्यार्थियों के नोट लगाये। बाद में विश्वविद्यालय से पता चला कि इनमें से कुछ को ही नकल में दोषी मानकर उनको परीक्षा से सम्बन्धित दण्ड दिया गया, शेष विद्यार्थी छूट गये। इस छूट के पीछे का गणित लाखों रुपये से ऊपर जा निकला। विश्वविद्यालय में प्रति छात्र-छात्रा पाँच हजार से दस हजार रुपये लेकर नकल के इन मामलों को खारिज कर दिया गया।
नकल के प्रति हमारा, विद्यार्थियों का, अभिभावकों का रवैया लचर होता जा रहा है। इसके पीछे कारण शिक्षा व्यवस्था में घोर निराशा का वातावरण व्याप्त होना है। सवाल उठता है कि आज के आधुनिक तकनीकी के दौर में साधारण से बी0ए0, बी0एस-सी0, एम0ए0, एम0एस-सी0 करने वाले विद्यार्थी को कहाँ और किस तरह की नौकरी मिलेगी? शिक्षा की अव्यवस्था में डिग्री का कोई महत्व नहीं दिखता, इस कारण से परीक्षाओं के समय, अध्ययन के समय छात्र-छात्राओं की अराजकता देखने को मिलती है।
लॉर्ड मैकाले ने अपनी शिक्षा व्यवस्था के द्वारा भारतीयों का कम से कम क्लर्क बनने का अवसर तो दिया था किन्तु हमें लगता है कि ये भारतीय मैकाले हमारे छात्र-छात्राओं को चपरासी बनने लायक भी नहीं छोड़ेंगे?