प्रेम दिवस बीत गया, क्या कहा, कुछ समझे नहीं? अरे भई! समझने को रखा ही क्या है विदेशी संस्करण का हिन्दी रूपान्तरण है ये प्रेम दिवस। जी हाँ, अब सही समझे आप, वेलेण्टाइन डे का हिन्दी अनुवाद।
हम रहते हैं भारत देश में और भारत के हिसाब से ही कुछ होना चाहिए कि नहीं? विगत कुछ वर्षों से लगातार संत वेलेण्टाइन के नाम पर देश के कुछ तथाकथित सुधारकों ने प्रेमियों की नाक में दम कर लिया था। संस्कृति को बचाने के नाम पर क्या-क्या नहीं होता था।
अरे! ये संस्कृति भी कोई संस्कृति है, जहाँ कोई प्यार का नाम नहीं, जहाँ प्रेमियों को मिलने की स्वतन्त्रता नहीं। याद आई वो फिल्म मोहब्बतें, जिसमें गुरुकुल में संघर्ष इसी से छिड़ता है कि वहाँ प्रेम के लिए जगह नहीं थी, लड़कियों को अन्दर आने की इजाजत नहीं थी। देखिये न प्यार करने की, प्रेम बाँटने की एक उम्र होती है, पढ़ना तो चाहे जिस उम्र में हो जाये।
ठीक इसी तर्ज पर संस्कृति का क्या है, अभी तक सुरक्षित नहीं रख पाये तो अब क्या सुरक्षित रखना। प्रेम जरूरी है क्योंकि एक उम्र के बाद तो कोई घास भी नहीं डालेगा प्रेम, प्यार के लिए। आज तो बाग-बगीचों में साथ में गले में बाँहें डाल कर घूमने-टहलने वाले मिल भी जाते हैं, कल को क्या होगा?
इसके अलावा एक बात का तो और भी ख्याल रखना है कि आधुनिकता के इस युग में यदि दो-चार को अपने आगे-पीछे नहीं घुमाया तो काहे की आधुनिकता, रह गये न फूहड़ के फूहड़। ठीक है लिस्ट बहुत लम्बी न हो पर इतनी तो हो कि खुद को अपराधबोध न हो, अपने ऊपर शर्म न आये।
जहाँ तक संस्कृति की बात है तो इस देश की संस्कृति है क्या? गिने-चुने पर्व वो भी एक तिरंगे कपड़े के सम्मान के लिए। कुछ दिवस तय किये तो किसी शहीद के लिए, किसी बुजुर्ग के लिए। अरे, इसे देखो, नाम से ही लगता है कि कोई रोमांस का दिन है ‘वेलेण्टाइन डे’ कहो बोलने में जीभ लड़खड़ाई?
जब तक जीभ न लड़खड़ाये, कदम न बहकें तब तक कैसा प्यार, कैसा प्रेम? जब बोलने में ही इतनी लचक तो इसके मनाने में कितना शुरूर होगा ये इस देश के लोग क्या जाने जो बात-बे-बात बस संस्कृति, सभ्यता का राग छेड़ने लगते हैं।
शुक्र मनाओ विदेशियों का जिन्होंने हमें इतने अच्छे-अच्छे दिन दिये मनाने को, हंगामा करने को, नहीं तो भारत में मिला क्या। एक विवादित वंदे मातरम् और राष्ट्रगान, एक लुटी-पिटी भारत माता, बूढ़े से महात्मा गाँधी, खिलवाड़ बनाये गये संविधान के निर्माता अम्बेडकर, बिना बात फाँसी पर झूल गये भगत, राजगुरु सरीखे युवक....क्या इन्हीं के सहारे आनन्द मनायें?
भइया आप तो जपो इनका नाम हम तो चले आज फिर वेलेण्टाइन डे, सॉरी प्रेम दिवस मनाने। वैसे आपके भले के लिए इतना ही बहुत है कि वेलेण्टाइन डे का हिन्दी रूपान्तरण भी बाजार में आ चुका है। आज नहीं तो कल यह दिवस भी हमारी संस्कृति का हिस्सा होगा (थोड़ा बहुत तो अभी ही बन चुका है)
आप लोग नाहक अपना ब्लड प्रेशर मत बढ़ाना, आप किसी के करे-बुते कुछ नहीं है संस्कृति के विकास के लिए। हम चलते हैं विकास करने प्रेम का, प्रेम दिवस का।
------------
अन्त में पुणे में मारे गये लोगों को श्रद्धांजलि भी दे दें, अरे औपचारिकता तो करनी ही है। कौन सा कोई हमारा मरा है जो वेलेण्टाइन डे का मजा खराब करें।
हम रहते हैं भारत देश में और भारत के हिसाब से ही कुछ होना चाहिए कि नहीं? विगत कुछ वर्षों से लगातार संत वेलेण्टाइन के नाम पर देश के कुछ तथाकथित सुधारकों ने प्रेमियों की नाक में दम कर लिया था। संस्कृति को बचाने के नाम पर क्या-क्या नहीं होता था।
अरे! ये संस्कृति भी कोई संस्कृति है, जहाँ कोई प्यार का नाम नहीं, जहाँ प्रेमियों को मिलने की स्वतन्त्रता नहीं। याद आई वो फिल्म मोहब्बतें, जिसमें गुरुकुल में संघर्ष इसी से छिड़ता है कि वहाँ प्रेम के लिए जगह नहीं थी, लड़कियों को अन्दर आने की इजाजत नहीं थी। देखिये न प्यार करने की, प्रेम बाँटने की एक उम्र होती है, पढ़ना तो चाहे जिस उम्र में हो जाये।
ठीक इसी तर्ज पर संस्कृति का क्या है, अभी तक सुरक्षित नहीं रख पाये तो अब क्या सुरक्षित रखना। प्रेम जरूरी है क्योंकि एक उम्र के बाद तो कोई घास भी नहीं डालेगा प्रेम, प्यार के लिए। आज तो बाग-बगीचों में साथ में गले में बाँहें डाल कर घूमने-टहलने वाले मिल भी जाते हैं, कल को क्या होगा?
इसके अलावा एक बात का तो और भी ख्याल रखना है कि आधुनिकता के इस युग में यदि दो-चार को अपने आगे-पीछे नहीं घुमाया तो काहे की आधुनिकता, रह गये न फूहड़ के फूहड़। ठीक है लिस्ट बहुत लम्बी न हो पर इतनी तो हो कि खुद को अपराधबोध न हो, अपने ऊपर शर्म न आये।
जहाँ तक संस्कृति की बात है तो इस देश की संस्कृति है क्या? गिने-चुने पर्व वो भी एक तिरंगे कपड़े के सम्मान के लिए। कुछ दिवस तय किये तो किसी शहीद के लिए, किसी बुजुर्ग के लिए। अरे, इसे देखो, नाम से ही लगता है कि कोई रोमांस का दिन है ‘वेलेण्टाइन डे’ कहो बोलने में जीभ लड़खड़ाई?
जब तक जीभ न लड़खड़ाये, कदम न बहकें तब तक कैसा प्यार, कैसा प्रेम? जब बोलने में ही इतनी लचक तो इसके मनाने में कितना शुरूर होगा ये इस देश के लोग क्या जाने जो बात-बे-बात बस संस्कृति, सभ्यता का राग छेड़ने लगते हैं।
शुक्र मनाओ विदेशियों का जिन्होंने हमें इतने अच्छे-अच्छे दिन दिये मनाने को, हंगामा करने को, नहीं तो भारत में मिला क्या। एक विवादित वंदे मातरम् और राष्ट्रगान, एक लुटी-पिटी भारत माता, बूढ़े से महात्मा गाँधी, खिलवाड़ बनाये गये संविधान के निर्माता अम्बेडकर, बिना बात फाँसी पर झूल गये भगत, राजगुरु सरीखे युवक....क्या इन्हीं के सहारे आनन्द मनायें?
भइया आप तो जपो इनका नाम हम तो चले आज फिर वेलेण्टाइन डे, सॉरी प्रेम दिवस मनाने। वैसे आपके भले के लिए इतना ही बहुत है कि वेलेण्टाइन डे का हिन्दी रूपान्तरण भी बाजार में आ चुका है। आज नहीं तो कल यह दिवस भी हमारी संस्कृति का हिस्सा होगा (थोड़ा बहुत तो अभी ही बन चुका है)
आप लोग नाहक अपना ब्लड प्रेशर मत बढ़ाना, आप किसी के करे-बुते कुछ नहीं है संस्कृति के विकास के लिए। हम चलते हैं विकास करने प्रेम का, प्रेम दिवस का।
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अन्त में पुणे में मारे गये लोगों को श्रद्धांजलि भी दे दें, अरे औपचारिकता तो करनी ही है। कौन सा कोई हमारा मरा है जो वेलेण्टाइन डे का मजा खराब करें।
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