30 दिसंबर 2009

लोकतंत्र की सार्थकता के लिए पहल करे चुनाव आयोग

उत्तर प्रदेश विधान परिषद् के स्थानीय निकाय के लिए चुनावी प्रक्रिया चल रही है। प्रत्याशियों का चयन हो चुका है, नामांकन प्रक्रिया हो चुकी है अब बस मतदान का इंतजार है। इसी इन्तजार के बीच मतदाताओं के खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया आसानी से चल रही है। (इसे एक आरोप कहा जा सकता है किन्तु यही सत्य है)


टिकट का वितरण हुआ और कुछ दलों के बारे में यहाँ तक सुनने में आया कि धन का सहारा लेकर प्रत्याशियों का चयन किया गया। बहरहाल यह मुद्दा नहीं है, मुद्दा तो यह है कि इन चुनावों में गिने-चुने मतदाता होते हैं जो अपने मत से प्रत्याशियों में से एक विधान परिषद् सदस्य का चुनाव करते हैं। मतदाताओं के ग्रामीण क्षेत्र से होने के कारण और किसी न किसी रूप में सरकार के अधीन होने के कारण उनके प्रभावित होने की आशंका बनी रहती है। ऐसे में यदि कोई धनपति व्यक्ति प्रत्याशी के रूप में सरकार चला रहे दल से होता है तो उसके जीतने की सम्भावना बढ़ जाती है।

मतदाताओं के खरद-फरोख्त की घटनाएँ आधुनिक लोकतन्त्र में होती आ रहीं हैं ऐसे में यह सुनना अजीब नहीं लगता कि फलां प्रत्याशी ने उस मतदाता को इतने रुपयों में खरीद लिया है। सवाल यह उठता है कि इस खरीद फरोख्त में हम लोकतन्त्र को कहाँ ले जाना चाहते हैं? क्या अब चुनाव में खड़ा होना या फिर चुनाव लड़ना बस धनपतियों के वश की बात रह गई है? धन के आगे क्या अब मत की कोई कीमत नहीं रह गई है?

यदि विगत वर्षों के चुनावों पर निगाह डालें तो आसानी से ज्ञात होगा कि चुनावों में बढ़ते जा रहे धनखर्च को चुनाव आयोग भी स्वीकार कर चुका है। बढ़ते धन-बल ने आम आदमी को भी चुनावी प्रक्रिया की ओर आकर्षित किया है। अब जिस व्यक्ति के पास लक्जरी कारों का काफिला है, चार-छह बन्दूकधारियों का लाव-लश्कर है, उसी के प्रति आकर्षण खुदबखुद बढ़ जाता है।

एक ओर आम मतदाता चुनाव में बढ़ते धनबल के प्रति चिन्तित है दूसरी ओर निर्वाचन आयोग की ओर से इस ओर कोई भी, किसी भी तरह की कार्यवाही होती नहीं दिखती है। लगता है अब वह जमाना चला गया जबकि पैदल चलकर प्रत्याशी मत की आकांक्षा में मतदाता के द्वारे-द्वारे जाते थे। अब कारों, हैलीकाप्टरों के द्वारा मतदाता को लुभाने का प्रयास किया जाता है और जो बच जाते हैं उन्हें नोटों की ताकत के सहारे खरीदने की कोशिश की जाती है। इसके बाद भी यदि झोली भरती नहीं दिखती है तो बन्दूकें तो हैं ही।

चुनावों में आ रही इस अव्यवस्था को निर्वाचन आयोग ही रोक सकता है। उसे चाहिए कि वह चुनावों में बढ़ रहे धनबल को रोकने को कार्य करे। इसके लिए उसे प्रत्याशियों को निर्देश देने होगे कि वे कम से कम चुनावी खर्च के द्वारा अपना चुनाव पूरा करें। चुनाव आयोग स्वयं ही प्रत्येक चुनाव में चुनावी खर्च को बढ़ा देता है। आखिर ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अब बिना कारों के, बिना बसों के, बिना हैलीकाप्टरों के चुनाव प्रचार नहीं हो सकता है?

ऐसा भी नहीं है कि धन के रोक का असर किसी एक प्रत्याशी के ऊपर पड़ेगा। धन के कम से कम प्रयोग का असर तो सभी के ऊपर समान रूप से पड़ेगा।

चुनाव आयोग आज अपनी भूमिका को चुनाव करवाने, मतदान करवाने, परिणाम घोषित करने तक ही सीमित क्यों कर बैठा है? उसे लोकतन्त्र की खातिर ही सही कुछ कड़े कदम उठाने ही होगे। चुनावों में कार्य करती सरकारी मशीनरी, धनबल, हथियारों का बढ़ता प्रयोग, आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का प्रत्याशी बनना आदि ऐसे उदाहरण हैं जिनको चुनाव आयोग की असफलता के रूप में देखा जा सकता है। इस ओर ध्यान देने की नहीं अपितु कुछ कड़े और सार्थक कदम उठाने की जरूरत है।

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चित्र साभार गूगल छवियों से

1 टिप्पणी:

  1. विचारणीय.


    यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

    हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

    मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

    नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

    आपका साधुवाद!!

    नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!

    समीर लाल
    उड़न तश्तरी

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