08 नवंबर 2009

उसके जिंदा होने ने बचाया अपराध बोध से

कल पूरी रात बड़ी ही असमंजस में बीती। एक अपराध बोध से ग्रसित महसूस कर रहे थे अपने आपको पर सुबह ने इस अपराध बोध को समाप्त कर दिया। रात को लगभग 8 बजे के आसपास एक पार्टी के लिए जाने की तैयारी चल रही थी। उसी समय आसपास के बच्चे किसी बिल्ली के बच्चे को लेकर चुहल करते समझ में आये। बच्चों का खेल समझकर अपने काम में लगे रहे।

थोड़ी देर के बाद बिल्ली के बच्चे को खोजने जैसी आवाजें सुनाई देने लगीं। बाहर निकल कर देखा और पूछा तो पता चला कि बिल्ली का बच्चा नाली में गिर गया है और निकल नहीं पा रहा है। हमें यह भली-भाँति मालूम था कि बच्चे बहुत ही होशियार हैं, वे बिल्ली के बच्चे को निकाल ही लेंगे। हम फिर अंदर आकर अपने काम में लग गये।

कुछ देर तक तो बच्चों की आवाजें आतीं रहीं और थोड़ी देर के बाद खामोशी सी छा गई। इस खामोशी में भी बिल्ली के बच्चे की मरियल सी रोने की आवाज सुनाई देती रही। जब थोड़ी देर बाद भी बिल्ली के बच्चे की आवाज नहीं थमी तो पूछने पर पता चला कि बिल्ली का बच्चा अभी भी नाली में फँसा है।

बच्चों से उसको न निकालने का कारण जाना तो उन्होंने बताया कि एक तो बिल्ली का बच्चा नाली में बहुत तेजी से दौड़ रहा है, दूसरे उसके द्वारा पंजा मार दिये जाने अथवा काट लिये जाने का भी डर है। पता चला कि बिल्ली का बच्चा इतना तो बड़ा है ही कि पंजा मार दे अथवा काट ले।

ऐसा जानकर हमने खुद उस बच्चे को निकालने की सोची। हमें मालूम था कि सरदी की रात में पानी में फँसे रहने के कारण हो सकता है कि रात में वह बच्चा मर जाये। अपने भतीजे को लेकर हमने नाली में छानबीन की तो उस बिल्ली के बच्चे को एक पत्थर के नीचे फँसा पाया। काफी मेहनत के बाद भी वह बाहर न निकला।

पत्थर सड़क को काटकर बहती नाली के ऊपर सीमेंट से जड़ा हुआ था और उसको उखाड़ने का मतलब था पत्थर का टूट तक जाना या फिर सड़क का खुद जाना। कई बार के प्रयासों के बाद भी जब वह बच्चा नाली से बाहर नहीं आया तो हमने अपने भतीजे से तथा पड़ोस के बच्चों से बिल्ली के बच्चे को निकालने की बात कह कर बाहर डिनर के लिए चले गये।

लौटने में लगभग साढ़े ग्यारह बज गये, लौटते ही अम्मा से पूछा तो पता चला कि उस बच्चे को निकाला नहीं जा सका है। अब हमें बड़ी चिन्ता हुई कि अब तो वह मर ही जायेगा। ध्यान से सुना तो उसके रोने की आवाज भी सुनाई दे रही थी। समझ नहीं आया कि क्या किया जाये? हमारी अपनी स्थिति ऐसी नहीं थी कि पीछे नाली तक जाकर उस बच्चे का हालचाल जानते।

मन मारकर सोने को लेट गये पर नींद न आये। बार-बार लगे कि खाने पर निकलने से पहले ही यदि पत्थर तोड़ दिया होता तो उस बच्चे को निकाला जा सकता था। सारी रात आँख लगती रही, खुलती रही। जब भी नींद खुलती बिल्ली के बच्चे के रोने की आवाज सुनाई देती। मन कचोटता और अपने को अपराधी मानता।

सरदी का मौसम, बाहर का सर्द वातावरण, नाली के पानी की ठंडक का सोच-सोच कर ही लगता कि सुबह तक वह बच्चा मर ही जायेगा। जैसे-तैसे सुबह हुई और हमने लगभग 6 बजे अम्मा को उस बच्चे की जानकारी लेने के लिए आवाज दी। छत पर जाकर पता किया तो आवाज अभी भी पीछे से आ रही थी।

पीछे वाले घर के लोगों को दो-तीन आवाजें देने पर वहाँ से एक-दो लोग बाहर आये। बिल्ली के बच्चे के बारे में पूछने पर कुछ पता न चला। हमारे साथ-साथ वे भी परेशान होने लगे। लगभग एक घंटे की और मशक्कत के बाद पीछे के दूसरे घर के सदस्यों के जागने पर पता लगा कि बिल्ली का बच्चा उनके घर में है।

रात में उन्होंने आवाज सुन कर पीछे का दरवाजा खोल उसे अपने घर में छिपा लिया था। यह जानकर साँस में साँस आई और स्वयं को एक अपराध बोध से मुक्त पाया। बिल्ली का बच्चा अभी भी उसी घर में है, रोने की आवाजें अभी भी आ रहीं हैं पर सुकून है कि वह जिन्दा है।

3 टिप्‍पणियां:

  1. न जाने ऐसे कितने ही अपराध बोध से हम रोज गुजरते हैं। हम सब मनुष्‍यों के प्रति ही संवेदनहीन हो चले हैं तब वह तो बेचारा बिल्‍ली का बच्‍चा था। लेकिन जान बची तो अपराध बोध से भी बचे।

    जवाब देंहटाएं