कल दीपक ने अपनी पोस्ट पर त्रयोदशी संस्कार की आवश्यकता को लेकर सवाल उठाया था। ऐसा ही सवाल हमारे मन में भी उठता है। सोचते हैं कि समाज का ये कैसा चलन है कि किसी के परिवार का कोई सदस्य चला गया और अन्य किसी को भोजन करवाया जाये।
इस प्रथा के पीछे के कारणों को बहुत लोगों से जानने का प्रयास किया, यहाँ तक कि बहुत से उन ब्राहमणों से भी जानना चाहा जो त्रयोदशी संस्कार को करवाते हैं पर कोई भी जवाब ऐसा नहीं मिला जिससे संतुष्ट हुआ जा सके।
कारण और निवारण की स्थिति के चलते दिमाग इस तरफ लगा ही रहता था। सामाजिक दायित्वों के निर्वहन में हमें स्वयं भी कई जगहों पर त्रयोदशी संस्कार में शामिल होने जाना पड़ता है। यहाँ भी मिलने-जुलने वालों से इस शंका के निराकरण की बात हो जाती है।
कई कारण सामने आये, हालांकि यह समझ नहीं आया कि इस संस्कार के लिए तेरह दिनों का प्रावधान क्यों किया गया? जो कारण हमने सोचे अथवा खोजे और जो कारण हमें बुजुर्गों से मिले उनके आधार पर हमने कुछ निष्कर्ष निकाले।
त्रयोदशी संस्कार के पीछे धार्मिक कारण, सामाजिक कारण, पारिवारिक कारण समझ में आये। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ऐसा माना गया है कि किसी के देहान्त के बाद उसके घर-परिवार को सांत्वना देने के लिए जाया जाता है। आम बोलचाल की भाषा में इसे ‘फेरा करना’ कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि फेरा करने के बाद उस घर में रुका नहीं जाता है। न रुकने के पीछे क्या कारण है यह तो स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं किन्तु ऐसा समझा जा सकता है कि जिस परिवार में उसके परिजन की मृत्यु हो गई हो वह किसी आगन्तुक के आवभगत की मानसिक स्थिति में नहीं होता है। हो सकता है कि इसी कारण से ऐसी मान्यता बना रखी हो।
यही मान्यता त्रयोदशी संस्कार के दिन भी लागू होती दिखती है। आज तो परिवहन के उन्नत साधन हैं। आदमी चाहे तो सैकड़ों किमी की दूरी को भी आसानी से पूरा कर सकता है। उस जमाने में जब कि परिवहन के साधन उपलब्ध नहीं थे, आदमी को कुछ किमी की दूरी के लिए भी घंटों यात्रा करनी होती थी, ऐसे में आने वालों को भूखे पेट बापस न होने देने के कारण उसके भोजन की व्यवस्था की जाती होगी। (मान्यताओं के अनुसार उसे रुकना भी नहीं है)
इसके अतिरिक्त एक और कारण जो समझ में आता है कि आज किसी के देहान्त का समाचार उसके समस्त रिश्तेदारों, परिजनों, सगे-सम्बन्धियों, मित्रों, आसपास के लोगों तक पहुँच जाता है। उस समय जब कि संचार माध्यम इतना तेज नहीं था तब सामाजिक रूप से समस्त लोगों तक इस बात की सूचना देने के लिए कि फलां-फलां व्यक्ति का देहान्त हो गया है और अब उसके उत्तराधिकारी के रूप में फलां-फलां लोग हैं। इस सूचना के पीछे यह भी कारण रहा होगा कि उस सम्बन्धित व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी उसके नाम से किसी प्रकार का आर्थिक, सामाजिक अथवा किसी अन्य प्रकार का लेन-देन न किसा जा सके। मृत्योपरान्त उस व्यक्ति के नाम का दुरुपयोग कर कोई भी उसके किसी भी परिचित से धोखाधड़ी न कर सके, इस कारण एक निश्चित दिन सभी का उस घर के सदस्यों से मिलने का चलन शुरू किया गया होगा। अब आने वालों को कुछ न कुछ, भले ही जलपान रूप में ही, खिला कर ही बापस भेजा जाता होगा।
इसी तरह पारिवारिक मान्यताओं में यह भी विचार किया जा सकता है कि जिस परिवार में किसी व्यक्ति का देहान्त हुआ हो, यदि उसे तुरन्त ही अकेला छोड़ दिया जाये तो उस परिवार के सदस्यों की इस दुखद घटना की वजह से मानसिक स्थिति पर भी असर पड़ सकता है। शोककुल परिवार के व्यक्ति आने जाने वालों में व्यस्त रहें और अपने दुख को सभी के साथ बाँटकर हल्का भी कर सकें। इस कारण तेरह दिन किसी न किसी संस्कार को सम्पन्न किया जाता रहता है।
आज के संदर्भों में बात करें तो स्पष्ट है कि उक्त कारणों के अतिरिक्त अन्य दूसरे कारण भी खोजे जा सकते हैं, उक्त कारणों को भी किसी हद तक स्वीकार किया जा सकता है किन्तु आज भोजन करवाने की परम्परा का स्पष्ट कारण समझ नहीं आता है।
आने वाले को कुछ भी खिलाने-पिलाने की भारतीय परम्परा, समाज के लोगों को मृत्योपरान्त उत्तराधिकारियों की जानकारी, शोककुल परिवार को सांत्वना देने के लिए लगातार लोगों का मिलते-जुलते रहना तो कुछ हद तक समझ आता है किन्तु उक्त कारणों की किसी भी अंश तक स्वीकार्यता के बाद वही सवाल आज भी खड़ा रहता है कि आखिर त्रयोदशी के नाम पर भोजन करवाने की परम्परा क्यों? और तो और अब तो बड़े ही दिखावे के साथ भी इस परिपाटी को सम्पन्न किया जाता है।
कारण बहुत खोजे जो उस जमाने के हिसाब से सही समझ आते हैं जबकि साधन सम्पन्नता नहीं थी किन्तु आज के संदर्भों में इस संस्कार के द्वारा मानव क्या सिद्ध करना चाहता है पता नहीं? सवाल फिर भी वहीं है और वही है..............
इस प्रथा के पीछे के कारणों को बहुत लोगों से जानने का प्रयास किया, यहाँ तक कि बहुत से उन ब्राहमणों से भी जानना चाहा जो त्रयोदशी संस्कार को करवाते हैं पर कोई भी जवाब ऐसा नहीं मिला जिससे संतुष्ट हुआ जा सके।
कारण और निवारण की स्थिति के चलते दिमाग इस तरफ लगा ही रहता था। सामाजिक दायित्वों के निर्वहन में हमें स्वयं भी कई जगहों पर त्रयोदशी संस्कार में शामिल होने जाना पड़ता है। यहाँ भी मिलने-जुलने वालों से इस शंका के निराकरण की बात हो जाती है।
कई कारण सामने आये, हालांकि यह समझ नहीं आया कि इस संस्कार के लिए तेरह दिनों का प्रावधान क्यों किया गया? जो कारण हमने सोचे अथवा खोजे और जो कारण हमें बुजुर्गों से मिले उनके आधार पर हमने कुछ निष्कर्ष निकाले।
त्रयोदशी संस्कार के पीछे धार्मिक कारण, सामाजिक कारण, पारिवारिक कारण समझ में आये। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ऐसा माना गया है कि किसी के देहान्त के बाद उसके घर-परिवार को सांत्वना देने के लिए जाया जाता है। आम बोलचाल की भाषा में इसे ‘फेरा करना’ कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि फेरा करने के बाद उस घर में रुका नहीं जाता है। न रुकने के पीछे क्या कारण है यह तो स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं किन्तु ऐसा समझा जा सकता है कि जिस परिवार में उसके परिजन की मृत्यु हो गई हो वह किसी आगन्तुक के आवभगत की मानसिक स्थिति में नहीं होता है। हो सकता है कि इसी कारण से ऐसी मान्यता बना रखी हो।
यही मान्यता त्रयोदशी संस्कार के दिन भी लागू होती दिखती है। आज तो परिवहन के उन्नत साधन हैं। आदमी चाहे तो सैकड़ों किमी की दूरी को भी आसानी से पूरा कर सकता है। उस जमाने में जब कि परिवहन के साधन उपलब्ध नहीं थे, आदमी को कुछ किमी की दूरी के लिए भी घंटों यात्रा करनी होती थी, ऐसे में आने वालों को भूखे पेट बापस न होने देने के कारण उसके भोजन की व्यवस्था की जाती होगी। (मान्यताओं के अनुसार उसे रुकना भी नहीं है)
इसके अतिरिक्त एक और कारण जो समझ में आता है कि आज किसी के देहान्त का समाचार उसके समस्त रिश्तेदारों, परिजनों, सगे-सम्बन्धियों, मित्रों, आसपास के लोगों तक पहुँच जाता है। उस समय जब कि संचार माध्यम इतना तेज नहीं था तब सामाजिक रूप से समस्त लोगों तक इस बात की सूचना देने के लिए कि फलां-फलां व्यक्ति का देहान्त हो गया है और अब उसके उत्तराधिकारी के रूप में फलां-फलां लोग हैं। इस सूचना के पीछे यह भी कारण रहा होगा कि उस सम्बन्धित व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी उसके नाम से किसी प्रकार का आर्थिक, सामाजिक अथवा किसी अन्य प्रकार का लेन-देन न किसा जा सके। मृत्योपरान्त उस व्यक्ति के नाम का दुरुपयोग कर कोई भी उसके किसी भी परिचित से धोखाधड़ी न कर सके, इस कारण एक निश्चित दिन सभी का उस घर के सदस्यों से मिलने का चलन शुरू किया गया होगा। अब आने वालों को कुछ न कुछ, भले ही जलपान रूप में ही, खिला कर ही बापस भेजा जाता होगा।
इसी तरह पारिवारिक मान्यताओं में यह भी विचार किया जा सकता है कि जिस परिवार में किसी व्यक्ति का देहान्त हुआ हो, यदि उसे तुरन्त ही अकेला छोड़ दिया जाये तो उस परिवार के सदस्यों की इस दुखद घटना की वजह से मानसिक स्थिति पर भी असर पड़ सकता है। शोककुल परिवार के व्यक्ति आने जाने वालों में व्यस्त रहें और अपने दुख को सभी के साथ बाँटकर हल्का भी कर सकें। इस कारण तेरह दिन किसी न किसी संस्कार को सम्पन्न किया जाता रहता है।
आज के संदर्भों में बात करें तो स्पष्ट है कि उक्त कारणों के अतिरिक्त अन्य दूसरे कारण भी खोजे जा सकते हैं, उक्त कारणों को भी किसी हद तक स्वीकार किया जा सकता है किन्तु आज भोजन करवाने की परम्परा का स्पष्ट कारण समझ नहीं आता है।
आने वाले को कुछ भी खिलाने-पिलाने की भारतीय परम्परा, समाज के लोगों को मृत्योपरान्त उत्तराधिकारियों की जानकारी, शोककुल परिवार को सांत्वना देने के लिए लगातार लोगों का मिलते-जुलते रहना तो कुछ हद तक समझ आता है किन्तु उक्त कारणों की किसी भी अंश तक स्वीकार्यता के बाद वही सवाल आज भी खड़ा रहता है कि आखिर त्रयोदशी के नाम पर भोजन करवाने की परम्परा क्यों? और तो और अब तो बड़े ही दिखावे के साथ भी इस परिपाटी को सम्पन्न किया जाता है।
कारण बहुत खोजे जो उस जमाने के हिसाब से सही समझ आते हैं जबकि साधन सम्पन्नता नहीं थी किन्तु आज के संदर्भों में इस संस्कार के द्वारा मानव क्या सिद्ध करना चाहता है पता नहीं? सवाल फिर भी वहीं है और वही है..............
बहुत अच्छा लगा............
जवाब देंहटाएंआपके आलेख पठनीय ही नहीं सहेजनीय भी होते हैं
धन्यवाद
एक कारण यह भी हो सकता है कि शोक के दिन पूरे हुए और परिवार फिर एक बार समाज में आने जाने लगे। इस बहाने लोगों का एक साथ भोज हो जाता है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा आपने, बहुत बढिया तरीके से आप ने अपनी बात रखी।
जवाब देंहटाएंविस्तार से समझाने के लिए धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंत्रयोदशी संस्कार के पीछे मुख्य कारण तो दुखी परिवार के परिजनों को सांत्वना देना ही समझ में आता है पर आज के परिवेश यह व्यवस्था गरीबों के लिए एक भार और सम्पन्नों के लिए स्टेटस का प्रदर्शन मात्र बन गयी है . इसमें त्वरित बदलाव की जरूरत है
जवाब देंहटाएंChaliye achchha kiya chacha ji ab mujhe likhne ki jaroorat nahin vistaar me.... aap ne wo sab bhi samjha diya jo maine socha hi nahin tha...
जवाब देंहटाएंJai Hind...
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