13 अक्टूबर 2009

गाँधी नाम की लूट है, लूट सके तो लूट


इसी दो अक्टूबर को महात्मा गाँधी को समर्पण प्रदर्शन के भाव से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) के पूर्व महात्मा गाँधी जोड़कर उसे मनरेगा बना दिया गया है। अब लगता है कि काम कुछ तेजी से हो सकेगा। नरेगा के द्वारा किस हद तक भ्रष्टाचार फैल गया है इसको किसी आँकड़े के द्वारा दर्शाने की आवश्यकता नहीं है।

ग्रामीण क्षेत्रों में कैसे काम हो रहा है और किस तरह का काम कागजों पर दिखा कर किन्हें भुगतान किया जा रहा है यह सभी को भली-भाँति ज्ञात है। यहाँ सवाल नरेगा के तहत काम और उसकी गुणवत्ता पर सवाल खड़ा करना नहीं है। सवाल है कि क्या नाम बदलने मात्र से अब योजना कारगर ढंग से कार्य करने लगेगी?

महात्मा गाँधी का नाम ले-लेकर अभी तक राजनीति की जा रही है पर क्या उनके सिद्धांत कायम हैं? हर बार अक्टूबर से लेकर जनवरी तक (गाँधी जी के जन्म से मरण तक) सिवाय कोरी गप्प के कुछ भी नहीं होता है। जो लोग आज उनके विचारों की प्रासंगिकता को लेकर विमर्श करते देखे जाते हैं वे स्पष्ट रूप से यह जान लें कि अब उनके विचारों की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। (यह वाक्य बहुत से कथित गाँधी भक्तों को चुभेगा)

सत्यता यही है, हमारा चिवार किसी तरह के विवाद को जन्म देना नहीं है पर आप सभी खुद इसका आकलन कीजिए और बताइये कि क्या वाकई गाँधी जी और उनके विचार आज प्रासंगिक हैं? यदि हैं तो फिर इस तरह की वैमनष्यता क्यों? नरेगा के नाम पर गरीबों से छल क्यों? मृत्योपरान्त भी व्यक्ति को कागजों पर जिन्दा दिखला कर उसके नाम से भुगतान करते-करवाते रहना किस मानवता का प्रतीक है?

गाँधी ने कभी यह नहीं कहा था कि किसी गरीब को भूखे पेट सोने दो और तुम खुद भरपेट सो जाओ। माना कि हम पूरी तरह से किसी का भला नहीं कर सकते पर जिस हद तक किसी का भला होता हो तो करने में क्या समस्या है? नरेगा के द्वारा हुआ यह है कि देश का भ्रष्टाचार देश की सबसे छोटी नागरिक इकाई (आम ग्रामीण) के पास भी पहुँच गया है। यह तो गाँधी जी का सिद्धान्त नहीं है? गरीबों, मजदूरों के साथ इस तरह की अमानवीय हरकत किसी भी रूप में महात्मा गाँधी के प्रति श्रद्धा नहीं दर्शाती है।

दलितों के नाम पर, अल्पसंख्यकों के नाम पर, जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर देश में राजनीति करने वाले किसी महान व्यक्तित्व का अनुकरण क्या करेंगे। वोट के लिए किसी भी हद तक कुछ भी कर गुजरने वालों से इसी बात की आशा की जा सकती है कि वे किसी महापुरुष के जन्म दिवस पर, जयन्ती पर उसको श्रद्धासुमन अर्पित करना न भूलें। हालांकि भागादौड़ी, आपाधापी, स्वार्थमय जीवन शैली के कारण लगता है कि कुछ महापुरुषों की तरह शेष भी विस्मृत कर दिये जायेंगे।
काम जैसे चल रहा था वैसे ही चलता रहेगा। आम आदमी यही कहता घूमेगा, भटकेगा-‘‘कोऊ नृप होये हमें का हानि, बेचो दूध मिला के पानी।’’

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