08 जुलाई 2009

समलैंगिक गीत - कली कली से, भौंरे भौंरों पर मंडराते मिलेंगे

महकते उपवन में नये निजाम मिलें गे
कली कली से, भौंरे भौंरों पर मँडराते मिलें गे। ।

चोरी-चोरी जो प्यार के गीत गाते थे,
आँखों-आँखों में ही बस गुनगुनाते थे।
खुल्लम खुल्ला होगी अब इजहारे-मुहब्बत,
प्रेम-प्यार की नित नई इबारत लिखें गे

बाप बेटियों के सोयें चादर तान के,
आयाम देखो उनकी स्वच्छन्द उड़ान के।
क्यों घबराते हो उनके रिश्तों को लेकर,
नहीं इससे उनके पैर भारी मिलें गे

शर्म की बात करते हो नादान हो,
होगा क्या सोच कर क्यों परेशान हो?
बेलौस होकर मदमस्त रहेंगे जोड़े,
कूड़े के ढेर पर नहीं नवजात मिलें गे

अभी तक पड़े थे हाशिये पर जो,
करते हैं याद उन वेद-पुराणों को,
बात कुछ हजम नहीं होती मेरे यार,
‘पॉप कल्चर’ वाले क्या वेद-पुराण पढ़ें गे


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ये कविता मात्र व्यंग्य है। इसमें कविता का मीटर तलाशने वाले कृपया अपनी मगजमारी न करें। कविता के नाम पर कविता कहने का आरोप न लगायें। बस पढ़ें और यदि मजा आया हो तो मजा लें।

5 टिप्‍पणियां:

  1. Good stir .Poem indicates the writer's literary ability to present views successfully on the concerning subject.
    . Attached slide which reflects many poses of a baby,is really beautiful.

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  2. ये कविता मात्र व्यंग्य है-एक जरुरी नोट था यह!! :)

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  3. मत ढूँढो इसमें कविता ये तीर व्यंग्य हैं।
    भारत की दुर्दशा, देख कर सभी दंग हैं।

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  4. डॉ० साहब वाकई आनंद देने वाली कविता रही। बहुत दिनों बाद आपके ब्‍लाग पर आया, नेट का पैसा उसूल रहा आपका लेख।

    एक गीत हमारा भी

    गे गे करते प्‍यार तुम्‍ही से कर बैठे :)

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