कभी अंग्रेजी राज हमारे देश में होने के बाद जब स्वतन्त्रता मिली और विदेशी ताकतों द्वारा हमें दोयम दर्जे का समझा जाता रहा उस समय हमारे देश को मदारियों, बाजीगरों का देश कहा जाता था। अब आज के हालात देखते हैं तो लगता है कि हमारा देश बाजीगरों, मदारियों का देश तो है ही साथ में विवादों का भी देश है। यहाँ किसी भी बात पर विवाद खड़ा कर देना हम लोगों की आदत में शामिल है।
कभी हम विवाद करते हैं आपसी सम्पत्ति के नाम पर, कभी विवाद होता है गली में कब्जें के नाम पर, कभी हम विवाद करते हैं अपनी हनक को स्थापित करने के लिए। ये विवाद इतने छोटे होते हैं कि इन पर कभी-कभी विचार करने मात्र से भी हँसी आती है। कुछ विवाद ऐसे होते हैं जिनका अपना अलग से कोई अस्तित्व नहीं होता है किन्तु हम उनको भी एक स्वरूप दे डालते हैं।
कुछ विवादों का स्वरूप तो इस तरह का होता है कि लगता ही नहीं कि वो कभी निपट भी सकेगे या नहीं? वर्तमान में महिलर विधेयक, स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी, आरक्षण आदि-आदि ऐसे विवाद हैं जो आसानी से सुलझते नहीं दिखाई देते हैं।
इन विवादों की कड़ी में (पहले से चला भी आ रहा है, लड़कियों के लिए ड्रेस कोड) कल इस चिरपरिचित विवाद को हवा दी कानपुर के एक महिला कालेज की प्राचार्या ने। उन्होंने लड़कियों के लिए ड्रेस कोड लागू किया साथ ही यह भी नियम बना दिया कि कोई भी छात्रा कालेज में मोबाइल नहीं लायेगी।
इधर उनका यह नियम लागू करना था कि उधर मीडिया ने अपना भोंपू बजाना शुरू कर दिया। कई महिला मुक्ति समर्थक इस नियम की खिलाफत और समर्थन करने लगे। लोगों को तुरन्त इस पर अपना उल्लू सीधा होता दिखाई देने लगा।
जब भी देश में कालेज में ड्रेस कोड को लेकर चर्चा होती है तो हमें एक बात समझ में नहीं आती कि जब इण्टरमीडिएट तक छात्र-छात्रायें यूनीफार्म पहन कर आ सकतीं हैं तो ऐसा क्या हो जाता है कि वे उच्च शिक्षा के लिए एक तय यूनीफार्म पहन कर नहीं आ सकते हैं? यह बात अकेले लडकियों पर लागू नहीं होती, लडकों को भी इस श्रेणी में शमिल किया जाता है। इस बात का विरोध अवश्य हो कि कोई भी कानून एक वर्ग विशेष या फिर एक लिंग विशेष को लेकर न बनाया जाये।
अब यहाँ विरोध क्यों? कालेज तो लड़कियों का अकेले है ऐसे में वहाँ की प्राचार्या किसी लड़के पर इस नियम को कैसे लागू कर सकती है?
जहाँ तक कपड़ों का सवाल है यह बात तो सभी को स्वीकारनी होगी कि आधुनिकत के वशीभूत लड़के और लड़कियाँ इस प्रकार के कपड़े पहने रहे हैं कि वे कपड़े पहनने के बाद भी नग्न नजर आते हैं। महिलायें विशेष रूप से अपने अंगों को दिखाने का काम करतीं हैं तो लड़के अपनी मसल्स को दिखा कर लड़कियों को आकर्षित करने की चेष्टा करते हैं।
इस लघु वस्त्र संस्करण और देह उघाड़ू फैशन के लिए यदि किसी को जिम्मेवार समझा जाये तो वह अभिभावक हैं और मानसिकता भी है। अभिभावक अपनी आँखों पर पट्टी चढ़ा कर यह देखना भूल जाते हैं कि उनके पुत्र-पुत्री ने किस प्रकार के कपड़े पहने हैं। कपड़े पहने भी हैं या फिर कपड़ों के भीतर से भी नंगई झाँक रही है।
मानसिकता इस कदर बिगड़ गई है कि कम कपड़े पहन कर कोई भी लड़का-लड़की समझती है कि उसने विपरीत लिंगी को पटा लिया है। लड़के-लड़कियों में बढ़ती सेक्स के प्रति कामना ने भी समाज में कपड़ों को कम से कमतर किया है।
ड्रेस कोड के नाम पर हंगामा उस समय उचित है जबकि यह केवल लड़कियों पर लागू हो। कालेज में एकसमान यूनीफार्म के नाम पर हंगामा गलत है। यह केवल विरोध के नाम पर विरोध है। एकसमान यूनीफार्म का अपना एक विशेष महत्व है। यह बात और है कि अपनी हाँकने के चक्कर में हम कुछ अमूल्य ज्ञान बिसारते जा रहे हैं, एक संस्कृति का क्षरण करते जा रहे है।
11 जून 2009
ड्रेस कोड क्यों, देह दर्शन जरूरी है
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deh dikhan hi faishan hai toh hum abhaage hain
जवाब देंहटाएंjaanwar hum se bahut aage hain
ha ha ha ha ha ha ha ha
सत्य वचन। आपने ठीक कहा कि यह विवादों का भी देश है। कहीं आपके पोस्ट पर भी विवाद करने न कोई आ जाय। लेकिन एक सा ड्रेस हो यह उचित है।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
Dress और Uniform में अंतर जब समझ में आये तब तो लोग चुप हों.
जवाब देंहटाएंव्यक्तिगत मत में, मैं विशिष्ट स्थानों पर यूनिफॉर्म के पक्ष में हूँ फिर चाहे वह स्थान अस्पताल हो, मंदिर हो, एयरलाईन हो, रेस्टारेंट हो, अदालत हो, स्कूल हो, कॉलेज हो, कारखाना हो या फिर कारावास।
ड्रेस तो वैवाहिक समारोह, फैशन शो, फैंसी ड्रेस के अच्छे लगते हैं। :-)
ड़ाक्टर साब सही कह रहे हैं आप्।
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