पिछले वर्ष जब 2 अक्टूबर को अन्तर्राष्ट्रीय शांति दिवस घोषित किया गया तो लगा कि शायद अब अपना देश ही गाँधी जी के विचारों को आत्मसात कर ले। कुछ मामलों में किया भी और कुछ में तो एकदम विस्मृत भी कर दिया। ये तो भला हो मुन्ना भाई का कि उसने नई पीढ़ी को बताया कि गाँधी जी अहिंसा का किस प्रकार प्रयोग करते थे वरना अभी तक तो समझा जाता था कि अहिंसा का अर्थ एक गाल पर तमाचा और दूसरे पर भी तमाचा है।
इधर हाल ही में गाँधी जी के विचार सत्य होते दिखे। जब हम आस्ट्रेलिया में पिटे तो भी हमने विरोध नहीं किया। दो-चार बार और पिटे और मीडिया ने खबर बनाई कि नस्लभेद के कारण ऐसा हो रहा है तो हमारी सरकार के नुमाइंदों ने कहा कि आस्ट्रेलिया को नस्लभेदी कहने की जल्दबाजी न करें। हम मान गये, आखिर गाँधी जी की अहिंसा का सवाल था।
उधर आस्ट्रेलिया में हमले होते रहे, कार फोड़ी जातीं रहीं, लड़के फोड़े जाते रहे और हम शान्त रहे। आखिर गाँधी जी की आत्मा का सवाल था। हम तो शान्त रहे पर आस्ट्रेलिया में मामला कुछ समझ न आया। एक गाल के बदले दूसरा गाल तो हाजिर है, दूसरे गाल पर भी पड़े तो पीठ हाजिर, पीठ पर पड़े तो पेट हाजिर, पेट पर भी पड़ने लगे तो अभी परिवार में हैं माँ-बाप-भाई-बहिन-बीवी-बच्चे अपना-अपना गाल, पीठ, पेट देने के लिए।
यह सब भी दिया पर आस्ट्रेलिया के लोग थे कि गाँधी जी की अहिंसा का और हम लोगों के कुछ न कुछ हाजिर करते रहने का इम्तिहान लेते ही जा रहे थे। सब कुछ देने के बाद इज्जत भी दी। ये सब तो हमारे पास पर्याप्त था सो दिया पर कारें कहाँ तक देते? जान तो कई दे सकते हैं पर बेचारे पढ़ने गये बच्चों के सामान तो निश्चित ही होगा, वो कैसे बार-बार देते रहते?
बस यहीं बात बिगड़ गई। मार और पड़ने लगी। भारतीयों को पिटते देख आस्ट्रेलिया के वे चुगद से लोग भी हमें पीटने लगे जिनके बारे में कहा जा सकता है कि ‘‘हाथ अगरबत्ती, पैर मोमबत्ती, सीना संदूक, XXXX बंदूक, जिन्दगी है झंड, फिर भी है घमंड, क्योंकि XXXX’’ (इसमें कुछ ऐसे शब्द और ऐसी पंक्तियाँ हैं जिन्हें यहाँ लिखना शोभा नहीं देगा) अब जब हर कोई मारने लगा तो भारतीयों को लगा कि शायद गाँधी जी का गिव एण्ड टेक का मामला फेल हो रहा है। बस फिर क्या था, भारतीय छात्रों ने भी टोली बना कर गश्त करना शुरू कर दिया। मौका मिला तो एक-दो को पीट दिया (समाचारों में ऐसा सुना, क्या पता ये भी आस्ट्रेलियाइयों की एक चाल हो?)
ऐसा समाचार जैसे ही हमारे देश में पहुँचा हमारे नेताओं के तो हाथ-पैर फूल गये। उन्हें लगा कि अरे! ये क्या हो गया? भारतीयों ने भी जवाब देना शुरू कर दिया। इससे तो गाँधी जी की अन्तर्राष्ट्रीय छवि पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा। अभी तो यूपी में गाँधी के नाम पर ही सत्ता परिवर्तन करना है।
आनन-फानन बयान जारी किया गया कि भारतीय छात्र संयम रखें, वहाँ पढ़ने गये हैं पढ़ने पर ध्यान लगायें न कि बदला लेने पर। अब मंत्रियों को कौन बताये कि पिटते-पिटते पढ़ाई नहीं हो पाती है।
एक बयान हमारी ओर से भी कि अपने देश की शिक्षा को भूल कर विदेश शिक्षा लेने गये हो तो पूरी तरह से तप कर ही लौटो। बिना पिटे कैसे पकोगे? सोना जितना आग में जलता है उतना ही निखरता है। पिटाई की आग में अभी से निखरोगे तभी तो कम्पलसरी सिटीजनशिप मिलेगी। पिटो, पिटो और पिटो, देश का नाम रोशन करो। सरकार तो गाँधी जी का नाम रोशन कर ही रही है लगातार हमले सह-सह कर। इस आशा में शायद महाशक्ति की ओर से आने वाले 2 अक्टूबर को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति दिवस पर कुछ मिल जाये?
10 जून 2009
पिटो-पिटो किंतु संयम बरतो...
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
नेताओं ने ऑस्ट्रेलियाई छात्रों को बिलकुल वही संदेश दिया है, जिसकी देश को और उन्हें 60 साल में "आदत" हो गई है… भले ही इस देश की जनता में 40% से अधिक युवा हैं और अब तो "बाबा" की मदद से मंत्री भी बने हैं, लेकिन गंदी आदतें जल्दी नहीं छूटतीं भाई… और पिटने की तो बिलकुल भी नहीं… रही बात सलाह और उपदेश देने की तो इस देश के नेताओं ने अब तक और दिया क्या है?
जवाब देंहटाएंbahut karaari chot..................
जवाब देंहटाएंachha
bahut hi achha laga !
बहुत बडिया तीर मारा है शायद किसी निशाने पर लग जाये सहने वलों के या कहने वालों के आभार्
जवाब देंहटाएंबहुत बडिया तीर मारा है शायद किसी निशाने पर लग जाये सहने वलों के या कहने वालों के आभार्
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया व्यंग्य !
जवाब देंहटाएं