09 जून 2009

सौ-सौ जूता खाएँ, तमाशा घुस के देखें

हमारे क्षेत्र में एक कहावत आम तौर पर इस्तेमाल की जाती है ‘‘सौ-सौ जूता खायें, तमाशा घुस के देखें’’। इस कहावत का जन्म कब और कैसे हुआ यह तो पता नहीं पर हम भारतीयों के ऊपर यह बिलकुल सटीक बैठती है। हम हर जगह किसी न किसी रूप में मार खाते रहते हैं और उसके बाद भी सुधरने का नाम नहीं लेते हैं।
अभी हाल में आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हमले हुए हमने विरोध का एक मरा-मरा सा स्वर दिखाया और फिर से कतार में लग गये कि विदेश जाने के लिए कैसे भी वीसा मिल जाये। विदेश का लालच हमें बरबाद तो करता ही है सारी दुनिया में शर्मसार भी करता है।
ऐसा नहीं है कि आस्ट्रेलिया में हुए हमले पहली बार हुआ भारतीयों पर हमला है। इससे पहले भी भारतीयों के विदेश में पिटने और बेइज्जत होने के समाचार आते रहे हैं। और तो और हमारे मंत्रियों को भी नहीं बख्शा जाता है। इसके बाद भी हम विदेश के लिए लालायित रहते हैं।
एक सवाल उन सभी भारतीयों से जो विदेश में हैं या फिर विदेश जाने के लिए अपनी जीभ लपलपाते रहते हैं कि विदेश में नौकरी करने या फिर पढ़ने का इतना मोह क्यों?
हम आज तक इस बात को नहीं समझ सके कि ऐसा क्यों? या तो कहिए कि हमें अवसर ही नहीं मिला। एक बात अवसर भले ही न मिला हो पर मन में कभी विदेश नौकरी करने या फिर पढ़ने का विचार आया भी नहीं। विदेश की नौकरी क्या बस पैसों के लिए? भौतिक सुख-संसाधनों की प्राप्ति के लिए? आरामतलब जीवन व्यतीत करने के लिए?
माना कि हमारे देश में अव्यवस्था को बोलबाला है; भ्रष्टाचार की अति हो सकती है; घूसखोरी कदम-कदम पर व्याप्त है; बिजली-पानी-रोटी-कपड़ा-घर जैसी मूलभूत सुविधाओं की कमी है, परेशानी है तो क्या बस इसी बात पर देश को छोड़ विदेशियों की नौकरी की जायेगी?
यह तो वही बात हो गई कि अपने माँ-बाप सुन्दर नहीं हैं तो सुन्दर से दिखने वाली हीरोइन-हीरो को अपना माँ-बाप कहने लगे। अपने माता-पिता ज्यादा ज्ञानवान नहीं हैं तो विश्व के सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान को ही अपना माता-पिता बताने लगे।
सोचिए कि विदेशी ताकतें ताकत किसकी दम पर बनी हैं? हम भरतीयों की प्रतिभा की दम पर। इसके बाद भी हम भारतीयों को कहीं भी सम्मान प्राप्त क्यों नहीं है? दो-चार देशों में होते हमलों से समूचे विश्व को ताकत मिलेगी और कल को समूचे विश्व में भारतीय पिटने के लिए प्रसिद्ध हो जायेंगे।
सुख-सुविधाओं की प्राप्ति यदि बेइज्जती की कीमत पर हो तो ऐसी कीमत देनी कबूल न की जाये। एक बार एकजुट होकर समूचे विश्व को बताना होगा कि विश्व के सभी विकसित राष्ट्रों के पीछे हम भारतीयों का हाथ है, यदि एक झटके में इस हाथ को खींच लिया तो विकसित देश से अविकसित देश होने में बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा। पर क्या हम भारतीय ऐसा कर पायेंगे? कम्पलसरी सिटीजनशिप के लिए लार गिराते, ग्रीन कार्ड के लिए पिटाई सहते भारतीयों को ऐसा करने का विचार मन में भी नहीं आता होगा।
इसी कायरता के कारण, सुखों की लालसा के कारण, तृष्णा के कारण ही बुजुर्गों का कहना सही लगता है कि ‘‘सौ-सौ जूता खायें, तमाशा घुस के देखें’’।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आत्मसम्मान की कमी और राष्ट्रगौरव की भावना का सूख जाना मुख्य कारण हैं…

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  2. और विदेश कौन जा सकता है भाई, देश की जनसंख्या का शायद 1 प्रतिशत पैसे वाला ही ना… जो यहाँ भी करोड़पति है, वहाँ से आयेगा तब भी अरबपति बनेगा… हर किसी के बस की बात नहीं है खासकर पढ़ाई के लिये विदेश जाना…

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