लोकतन्त्र की आज समाप्ति हो गई। घबराइये नहीं, कोई सैनिक शासन लागू होने नहीं जा रहा है। आज चुनाव समाप्त हो गये हैं। अब आम जनता के हाथ से गेंद निकल कर नेताओं के पाले में पहुँच गई है। वैसे भी लोकतन्त्र चुनावों में पराजित हो ही चुका है; कम मतदान होने के कारण। सोचिए कि 45-50 प्रतिशत लोगों द्वारा लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था जताना क्या लोकतन्त्र की पराजय नहीं है?
वैसे भी जितना लोकतन्त्र बचा था वह अब समाप्त हो गया है। अब नेताओं के मिलने-मिलाने के, बैठक करने के दौर, चाय-पानी के दौर शुरू हो चुके हैं। अब आम जनता के हाथ में इतना ही है कि वह खाली बैठे तमाश देखे और बाद में सरकार के पक्ष में या विपक्ष में अपनी राय व्यक्त करे।
कौन बनायेगा सरकार? कौन होगा प्रधानमंत्री? कौन-कौन होगा सरकार में शामिल? ये सवाल हैं जिनका उत्तर सिर्फ नेताओं के हाथ में ही है। (याद कीजिए चल रही लोकसभा के प्रधानमंत्री की नियुक्ति के बाद का पूरा ड्रामा) चलिए हाथ पर हाथ रखकर बैठिये और दो दिन बाद पूरे दिन टीवी के सामने बैठ कर अपना दिन खराब करियेगा। पूरे दिन में दस बारह कप चाय के सुड़कियेगा। जिनकी शादी हो गई है वे अपनी पत्नी की और जो अभी तक इससे लाभान्वित नहीं हुए हैं वे बार-बार चाय की फरमाइश करने पर घर की अन्य महिलाओं से फटकार सुनने को भी तैयार रहें।
परिणाम के बाद आप मुँह खोल कर ही अगले कदम का इंतजार करियेगा क्योंकि ये तय बात है कि नतीजा आपकी आशा के अनुरूप नहीं होगा। यही तो लोकतन्त्र है। (नहीं भाई लोकलतन्त्र नहीं कहिए)
आज इस बार की अन्तिम चुनावी चकल्लस-हमने अपनी चाल चल दी अब उनकी बारी,
देखो सरकार बनाने की आती किसकी बारी,
फैसला हो कुछ भी वे तय कर बैठे हैं,
होगा किसका दरबार और कौन होंगे दरबारी।
13 मई 2009
लोकतंत्र की समाप्ति और हमारी बेताबी ड्रामा देखने की
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