आज सुबह ही एक पोस्ट लिखी थी और इस समय आने का मकसद आपके सामने अपने शहर के एक कलाकार को सामने लाना है। जावेद कुदारी तो याद है आप लोगों को? जिन्हें याद है उनका आभार कि हमारे शहर के एक कलाकार को आपने याद रखा और जिन्हें याद नहीं कृपया वे यहाँ देख लें शायद कुछ याद आ जाये। बहरहाल जावेद कुदारी जितने अच्छे चित्रकार हैं उतने ही अच्छे गायक और लेखक हैं। उनके द्वारा हर गीत का अपना अंदाज है, अपनी ही रवानी है, अपना ही दर्द है। ऐसे ही एक गीत ‘अब कुम्हारों ने सदा को चाक धोकर रख दिये’ आपके सामने है। पढ़ने और सुनने दोनों रूप में, आप जैसे चाहें वैसे आनन्द उठायें।
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अब कुम्हारों ने सदा को, चाक धोकर रख दिए।
कोई आता ही नहीं लेने दिवाली के दिए।।
न गगरिया, न है पनघट,
न है पनिहारन कहीं,
और पथिक भी जा रहे हैं,
हाथ में थरमस लिए।
अब कुम्हारों ने सदा को, चाक धोकर रख दिए।
हर कुँए की झिर है सूखी,
आज गगरी के बिना,
रस्सियाँ मिलती नहीं अब,
सावन में झूलों के लिए।
अब कुम्हारों ने सदा को, चाक धोकर रख दिए।
कुल्लहड़ों, मटकों, घड़ों की,
पुतलियाँ खामोश हैं,
होंठ उनके भी हैं प्यासे,
तर गले जिसने किये।
अब कुम्हारों ने सदा को, चाक धोकर रख दिए।
गीली माटी ने अबों से,
धूल बनकर ये कहा,
नौजवां क्यों हाथ साने,
कर रहे एम0ए0 बी0ए0।
अब कुम्हारों ने सदा को, चाक धोकर रख दिए।
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(जावेद भाई के सामने हमारी क्या बिसात इसलिए इस पोस्ट में चुनावी चकल्लस नहीं, क्षमा करिएगा)
सुनने में मजा अलग है, कृपया यहाँ सुनें।
जावेद भाई ,
जवाब देंहटाएंजमीन से जुडी हुई एक बहुत खूब कविता पढने को मिली. एक -एक पंक्ति बोलती हुई नज़र आती है. एक ऐसी सच्चाई जो एक कुम्हार और उसके दिल का हाल बखूबी बयां करती है.
शाहिद "अजनबी"
bahot khub rahi ye...........
जवाब देंहटाएंप्रभावी प्रस्तुति। पढ़ने और सुनने दोनो में आनन्द आया। आभार।
जवाब देंहटाएंsun kar maza aaya...
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