एकदम से सरदी का जाना और फरवरी के अन्त में ही गरमी जैसा मौसम दिखना बताता है कि मौसम का मिजाज कुछ बदलने वाला है। अब क्या बदलेगा और कैसे बदलेगा, यह तो पता नहीं पर जो जानकार हैं वे बता सकते हैं कि क्या बदलेगा? मौसम के मिजाज को देखकर, हवाओं के रुख को देखकर, बारिश के होने न होने को देखकर गाँव के बुजुर्ग बता दिया करते थे कि आगे क्या होने वाला है। हो सकता है कि गाँवों में आज भी कुछ लोग इस तरह के आज भी हों जो मौसम को देखकर आगे की जानकारी दे सकते हैं। यह सब उन नये लोगों के लिए आश्चर्य का विषय हो सकता है जो गाँव से सीधे-सीधे सम्बन्ध नहीं रखते हैं पर वे सभी लोग अवश्य ही इससे परिचित होंगे। अब गाँव को भी शहरों में बदलने का कार्यक्रम चल रहा है। तकनीक का आना और उसका उपयोग किसी भी रूप में बुरी बात नहीं है किन्तु तकनीक के नाम पर अपनी संस्कृति को और ज्ञान को भुला देना अवश्य ही गलत बात है। गाँव में भी आज जिस तरह से सांस्कृतिक वातावरण का विकास हो रहा है (इसे विकास न कहें तो शायद बेहतर होगा) वह किसी भी रूप में स्वस्थ परम्परा की स्थापना नहीं कर रहा है। हमारा जो भी प्राकृतिक ज्ञान था आज उसकी ओर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है। जो बुजुर्गवार आज भी इस धरोहर को संभाले बैठे हैं वे अपनी विद्या किसी न किसी को सिखाना चाहते हैं पर युवा वर्ग इस ओर आकर्षित ही नहीं हो रहा है। इस तरह के माहौल से हमारा ज्ञान सदा-सदा को विलुप्त हो रहा है। क्या यह सम्पदा सुरक्षित रह पायेगी? क्या कोई इस ओर भी सकारात्मक प्रयास करेगा? काश! कोई विदेशी इस पर किसी तरह से अपनी नजरें इनायत कर दे तो सम्भव है कि इस प्राकृतिक ज्ञान का भी भला हो जाये। हम भारतीयों के हाथ में तो बहुत कुछ वैसे भी नहीं रहता है...........हमारी तरक्की, हमारी प्रतिभा को तो विदेशी ही तय करते हैं???
हम भारतियों के लिए तो तरक्की के मायने स्लमडॉग पर केंद्रित रहते हैं। अब ऐसे में पुरानों को कौन पूछता है?
जवाब देंहटाएंसही फ़रमा रहे हैं
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गुलाबी कोंपलें
चाँद, बादल और शाम
आपकी चिंता जायज है .... कुछ लोग तो कोशिश कर रहे हैं पारंपरिक और प्राकृतिक ज्ञान को बचाने की .... पर सरकारी संस्थाओं के सहयोग के अभाव में यह संभव नहीं है।
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