अपनी पिछली पोस्ट पर हमें तीन टिपण्णी देखने को मिलीं, जिनमें एक तो सीधे-सीधे हमारे विचारों के समर्थन में दिखी, दो में एक ने हमें बीन बजाने की सलाह दी और दूसरी में दबे-छिपे हमारी बात का समर्थन और विरोध था. बात ये है कि हम युद्ध के नाम पर एकदम से परमाणु युद्ध की कल्पना करना क्यों शुरू कर देते हैं? ये बात साफ़ है कि कोई भी युद्ध अपने पीछे पीढियों का विनाश लाता है पर इसी विनाश के पीछे ही विकास की राह खुलती है. ये बातें बाद की हैं पहले ज़रा विचार करिए इस बात का कि क्या इस समय जैसे हालत हैं क्या वे भयावह नहीं हैं? क्या इन हालातों में लोगों की जानें नहीं जा रहीं हैं? क्या सरकारी मशीनरी-चाहे वो सेना हो या स्थानीय पुलिस- का समय जाया नहीं हो रहा है? इधर लगातार ऐसे हालत हैं कि लगता है कि अब आतंकी हमला हुआ कि तब हुआ। उस पर देश के कुछ नेता और नागरिक पाकिस्तान प्रेम का राग आलाप कर समूचे घटनाचक्र को और भी भयावह बना देते हैं.
हाल-फिलहाल के मुंबई घटनाचक्र को छोड़ दिया जाए तो क्या विगत कुछ वर्षों को हम लोग शांतिपूर्ण ढंग से गुजारा हुआ कह सकते हैं? साल दर साल हम पकिस्तान की जबरदस्त मार को सहते आ रहे हैं. बिना लादे हम अपने सैकड़ों सैनिक और हजारों नागरिक गँवा देते हैं. क्या से सब श्मशान में बीन बजाने जैसा नहीं है? क्या से सब हमारी पीढियों को नुक्सान नहीं पहुँचा रहा है? जिनको लगता है कि किसी भी रूप में ख़ुद को निरपेक्ष साबित करना है वे तो पाकिस्तान-प्रेम की बात करते हैं और गाहे बगाहे पकिस्तान की मदद करने कि चर्चा भी छेड़ देते हैं. यही लोग नहीं जानते कि कैसे हम और हमारे सैनिक इन हालातों को सह रहे हैं। भगवन न करे कि जिन्हों ने पकिस्तान प्रेम की बात की है या कर रहे हैं उनके घर का कोई नौजवान पकिस्तान से हुए हमलों या फ़िर पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमलों में शहीद हुआ हो (जिनके शहीद हुए हैं उनसे पूछो, भडासियों की तरह टिपियाना आसान होता है)
ये बात फ़िर कही जा सकती है कि युद्ध ही एक मात्र समाधान नहीं पर जब सारे रास्ते बंद हो चुके हों तब?????? युद्ध युद्ध और बस युद्ध............................ लाखों रोज फूंकने से अच्छा है कि करोड़ों का हिसाब कर दिया जाए...........पीढियों तक घाव को सहेजने से अच्छा है कि अंग ही काट दिया जाए............... रोज-रोज दस-दस, बीस-बीस मरने से अच्छा है कि एक बार में ही सैकड़ों समाप्त कर दिए जाएँ..................रोज-रोज की जलालत से अच्छा है कि यदि बचे तो श्मशान में बैठ कर बीन बजाई जाए.
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