05 अक्तूबर 2008

क्या हो रहा है ये सब?

आज शाम को अपने मित्रों के साथ बैठा गपबाजी कर रहा था. गप्प कम और किसी न किसी विषय पर बहस की तरह का चिंतन अवश्य होता है, ये लगभग नित्य का नियम है. मन को खुराक भी मिलती है, जीभ की खुजली भी मिटती है, किसी न किसी विषय पर एक सार्थक चर्चा हो जाती है. ऎसी ही कई विषयों की मिली-जुली चर्चा के दौरान एक सवाल खडा हुआ की क्या देश में अब शांतिपूर्वक कोई काम नहीं हो सकता है? पिछले कुछ समय के देश के हालत बताते हैं कि देश में अब शान्ति से काम करना सम्भव ही नहीं रह गया है। इसके पीछे आदमी का स्वार्थपूर्ण रवैया और कुछ मतलबपरस्त राजनीति का होना भी शामिल है.
हो सकता है कि राजनीति के नाम पर कुछ लोगों को ये बात हजम न हो पर......... बहरहाल चर्चा चली और अंत में निष्कर्ष निकला कि देश को अब इस तरह की शासन-प्रणाली की जरूरत है जिसमें देश में दो ही पार्टियाँ हों. देश में प्रधानमंत्री का, राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री का चुनाव सीधे-सीधे जनता करे. इससे देश की जनता को मालूम रहेगा कि हमें किसे प्रधानमंत्री बनाना है और किसे मुख्यमंत्री. दो पार्टियों के होने से एक तो गठबंधन की राजनीति समाप्त होगी और इससे उस तरह की खरीद-फरोख्त की राजनीती पर भी रोक लगेगी जो सरकार बनाते समय की जाती है. एक-एक आदमी अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए एक पार्टी बना कर खडा हो जाता है और जीतने की दशा में सबको प्रभावित करने की चेष्टा करता है.

एक बात और यहाँ उभर कर आई कि राजनेताओं को अब बेदखल किया जाना चाहिए, चाहे उसे सरकार या संसद या राष्ट्रपति स्वयं करे या ये अधिकार जनता को दिए जाएँ. वोट के लालच में जिस तरह की राजनीती अब हो रही है वह समाज में वैमंश्यता ही बढ़ा रही है. ख़ुद देखिये कि आरक्षण की राजनीति ने किस कदर अगडे-पिछडे का भेद स्पष्ट कर दिया है. अब सरकारी नौकरी के लिए क्रीमी लेयर की सीमा 4.50 लाख रुपये कर दी है, यानी कि एक सवर्ण जिसकी वार्षिक आय कुछ भी हो वह आरक्षण का लाभ नहीं ले सकता (गरीब होने पर भी नहीं) और एक वार्षिक लखपति व्यक्ति सरकारी आरक्षण भी पायेगा और परीक्षा शुल्क में छूट भी पायेगा.

चर्चा तो इस हद तक हुई कि यहाँ लिख दें तो बहुतों को हजम न हो पर सार इतना है कि यदि देश को तरक्की और अमन-पसंद बनाना है तो सभी को स्वार्थ छोड़ कर फिरकापरस्तों को मुँहतोड़ जवाब देना होगा अन्यथा.....

4 टिप्‍पणियां:

  1. देश की तरक्की के लिये ज़रुरी है व्यव्सथा मे परिवर्तन्।

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  2. कुछ जबरदस्त परिवर्तन की दरकार है.

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  3. ...और ये जरूरत आन भी पड़ी है, अभी कुछ करगए तो भला हो सकता है हमारा लेकिन सिर्फ नेताओं और फिरकापरस्तों पर ही इल्जाम नहीं है हम भी तो कोताही बरतते हैं। चार गुंडे पूरे समाज के ठेकेदार बने रहते हैं। पहले से ही तैयारी रहे तो ये देश को यूं नहीं हांक सकते।

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  4. कुमारेन्द्र जी ब्लागास्ते ,
    यारो बनाओ मत मुझे मसीहा ,अंजाम मुझे मालूम है ;
    हर मुल्क ओ दौरां में ,कत्ल होना ही गांधी का नसीब है ।।
    हर दौर ए ईसा की तकदीर मुझे मालूम है ;
    ख़ुद के कांधो पर उठाये फिरना ,अपना ही सलीब है ।।1।।

    इस मामले में तो ईश्वरभी कुछ नही कर सकता है ,क्यों कि:--->

    आज छिपता न फिरता
    ईश्वर भी इंसानों से ;
    स्वर्ग से 'हव्वा' के संग ,
    जो उसे निकाला न होता
    ज़िन्दगी बहुत खूब मिली
    खूब मिली, क्या खूब मिली | |

    इसीलिए

    औरो के दर्द का एहसास
    अपमे दिल में भी जगाईये ;
    बनियेगा मत, मगर मसीहा
    फ़क़त " रहबर "का फ़र्ज़ निभाईये |

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