सेक्स एजुकेशन को सिर्फ़ आदमी-औरत के शारीरिक संबंधों तक सीमित करके नहीं देखें तो हम इसकी महत्ता को समझ पायेंगे. चूंकि हमारे मित्र को पता है कि हम ब्लॉग पर भी इस लेख को चिपका सकते हैं तो उन्हों ने फिल्मी डिरेक्टर की तरह हमारे ऊपर विश्वास की सख्ती कर दी कि पत्रिका प्रकाशित होने के पहले इस लेख को ब्लॉग पर पोस्ट नहीं करोगे।
इस कारण से उस लेख को ज्यों का त्यों कुछ दिन बाद लिखेंगे पर सेक्स एजुकेशन की जरूरत के बारे में इतना समझ लें कि इस शिक्षा की जरूरत बच्चों को ये बता कर करनी होगी कि हमारे शरीर के किन-किन अंगों को हमें किसी दूसरे के सामने प्रदर्शित नहीं करना है. अक्सर देखा गया है कि 6-7 वर्ष तक के बच्चों में अपने यौनांगों को लेकर एक तरह की उत्सुकता रहती है. वे किसी न किसी बहाने आपस में, खेल-खेल में ही एक दूसरे के यौन्नंगों का निरीक्षण-परीक्षण करते हैं. उनकी इसी जिज्ञासा का लाभ समाज के बहसी भेडिये उठाते हैं और हमारे बच्चे नसमझी में यौन शोषण का शिकार हो जाते हैं।
चलिए अभी इतना ही, बाकी बस इतना समझिये कि ये कहना कि सेक्स एजुकेशन जानवरों को तो कोई नहीं देता फ़िर भी वे अपनी नस्ल को बढ़ा रहे हैं, एक दूसरे के साथ संसर्ग कर रहे हैं, ख़ुद को धोखा देना होगा. हमें मात्र नस्ल नहीं बढानी है, मात्र शारीरिक संबंधों को नहीं सिखाना है हमें बताना है कि पति-पत्नी के संबंधों में विश्वास क्या है? पारिवारिक जिम्मेवारियां क्या हैं? बच्चों की परिवरिश क्या और कैसी हो? इस कारण सेक्स एजुकेशन को लागू होना चाहिए या नहीं ये बाद की बात है पर कंडोम, बिंदास बोल.....आज का फ्लेवर क्या है जैसे विज्ञापनों और पीली पन्नियों में बिकती किताबों, नेट पर घूमती रंगीन दुनिया से सेक्स को समझते बच्चों को उसका असल मतलब तो समझाना ही होगा.
५ दिन की लास वेगस और ग्रेन्ड केनियन की यात्रा के बाद आज ब्लॉगजगत में लौटा हूँ. मन प्रफुल्लित है और आपको पढ़ना सुखद. कल से नियमिल लेखन पठन का प्रयास करुँगा. सादर अभिवादन.
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