आइये जीत का जश्न मनाते हैं. क्या कहा कहाँ जीते? किसमें जीते? नहीं पता? अरे ओलम्पिक में हमारे मुक्केबाज़ ने कितना संघर्ष किया, क्रिकेट टीम ने श्रीलंका को 147 रन बनाने में 2 खिलाडी आउट कर दिए, कई और खिलाडी ओलम्पिक में अपना संघर्ष जारी रखे हैं. क्या ये सब खुशी मनाने का, जश्न मनाने का मौका नहीं है? हम लोगों के लिए कितने फक्र की बात है कि अरब की जनसंख्या को छूने वाले देश में खिलाड़ियों की कुल 56 की संख्या ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई कर पाती है, इस संख्या में से भी एक पदक हमारे हिस्से में आता है. किसी और पदक की चाह में जब हम रहते हैं और हार जाते हैं तो कहते हैं कि ये हमारे लिए किसी जीत से कम नहीं है क्योंकि हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाडी से हारे हैं. क्या ये सफाई हर बार ठीक लगती है?
कई बार हमसे छोटे देश जो संसाधनों में हमसे बहुत पीछे हैं, सुविधाओं में बहुत पीछे हैं वे भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर का प्रदर्शन करते हैं। याद करिए सूरीनाम का तैराक....... हम भारतीय एक बात तो भली-भांति सीख गए हैं कोई भी घटना हो जाए, दुर्घटना हो जाए किसी और पर दोष मढ़ दो बस बात ख़तम। इसका उदहारण देने की जरूरत नहीं क्योंकि ये सभी को मालूम है. लगा कि हम कितनी आसानी से हारना भी जानते हैं और हार पर अपनी प्रतिक्रिया भी देना जानते हैं. ऐसे तो खेलों का क्या किसी भी स्थिति का भला नहीं होने वाला.
यही कारण है कि देश में आतंकवाद, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, हिंसा, क्षेत्रवाद, जातिवाद अपने चरम पर है.जब तक सुधार की गुन्जाईस नहीं दिखती तब तक हम ये तो कह ही सकते हैं कि इन स्थितियों में भी देशवासियों की ज़िंदा रहने की ताकत किसी जीत से कम नहीं है. इन बातों के साथ-साथ दुआ करें कि शायद ओलम्पिक ख़तम होते-होते एक-दो पदक (दो शायद ज्यादा हो गया) और देश के हिस्से में आ जाएँ. खाली दुआ करें, यज्ञ, हवन न करने लगियेगा क्योंकि इस देश में ये भी बहुत जल्दी होता है और हरेक काम के लिए.
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