09 जून 2008

भारत (इंडिया) में गाँव नहीं बसता

नमस्कार, दो-तीन दिन हो गए, कंप्यूटर के द्वारा अपने ब्लॉग-संसार में विचरण नहीं कर सका। इसका कारन मेरा आलस या किसी तरह की व्यस्तता न होकर मेरा स्वयं ऐसी दुनिया में विचरण करना रहा जहाँ कंप्यूटर तो दूर लाईट के दर्शन ही चौबीस घंटों में शायद ही चौबीस मिनट को होते हों।............. आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि मैं ऐसी किस दुनिया में हो आया? घबराइये नहीं मैं इस धरती से दूर नही गया था (वैसे आजकल टी० वी० मैं लगातार दूसरी दुनिया के सबूत दिखाए जा रहे हैं) मैं गया था अपने गाँव। गाँव भी आना-जाना पड़ता है, आख़िर अभी हम लोगों की जड़ें गाँव से जुडी हुई हैं।

गाँव जाकर लगा कि हमारी नज़रों मैं अब गांवों की तस्वीर रह ही नहीं गई है, इसको आसानी से साहित्य में, फिल्मों में, मनोरंजन में, राजनीती में, व्यापार में देखा जा सकता है। हर क्षेत्र में अब गाँव की तस्वीर समाप्त है। हर आँख में शहर है, तड़क-भड़क है, हाई-फाई जीवन-शैली है, रंगीनियाँ हैं, करोड़ों-अरबों की बातें हैं। ये सब अभी गांवों में नहीं है। गाँव में अभी भी सूखा है, कठिन जीवन-शैली है, एक-एक रोटी के लिए जद्दोजहद है, ऐसी कोई भी स्थिति अब हमारी चर्चाओं में नहीं है।

अब आप देखिये हमारी फिल्मों आदि को जो कहा जाता है कि हमारे समाज का प्रतिविम्ब है, क्या यही है हमारा समाज? पहले थोडी सी चर्चा कर लें इस समाज की जो हम देखना चाह रहे हैं या कहें कि हमें दिखाया जा रहा है। हमारे आसपास ऐसे लोग हैं जो अब आम आदमी की परिभाषा से ऊपर उठ कर विशेष की परिभाषा में शामिल हो चुके हैं। ऐसे लोगों को महिमा-मंडित करने में लगा है हमारा मीडिया, हमारी फिल्में। यहाँ आकर थोड़ा सा रुकिए और सोचिये कि क्या ऐसा सम्भव है कि संसार में अब धनी लोग ही रह गए है? कारों के काफिलों से सजे लोग ही बचे हैं? घरों में लाखों के जेवरात से लदी-सजी महिलाएं ही रह रहीं हैं? समाज अभी भी ऐसे लोगों के कम से कमतर प्रतिशत में है, अधिसंख्यक लोग अभी भी वे लोग हैं जो दो जून की रोटी की चिंता में लगे हैं, रोजगार की चिंता में लगे हैं, सिर के ऊपर एक छत की आशा में लगे हैं। फ़िर जो दिख रहा है वो क्या है, कहीं हमारी अंतरात्मा की तृष्णा तो नहीं?

कुछ भी हो अभी उस समाज का चित्र बाकी है जो हमारे समाज की वास्तविकता है। गांवों में या शहरों में रहता ऐसा वर्ग अधिसंख्यक है। फिलहाल बिना भटके अभी बात गाँव की, यहाँ बुन्देलखण्ड में विगत चार वर्षों से मानसून ने अपना रौद्र रूप दिखलाया है। सूखा लगातार आदमियों की जीवन-लीला को समाप्त कर रहा है। जिसे मौसम न मिटा सका उसको भूख ने मर डाला। एक-दो लोग नहीं परिवार के परिवार कल के हाथों में ख़ुद को सौंप रहे हैं। आख़िर वे भी क्या करें? यहाँ एक समय को रोटी नही, पीने को पानी नही, हमारा बीस हजारी सेंसेक्स कहता है कोल्ड-ड्रिंक पियो, सोडा की बोतल खोलो। किसानों को अपने गेंहू का उचित मूल्य नहीं मिल रहा क्योंकि सरकार सोचती है कि उसकी व्यवस्था एकदम सही है और इसी की आड़ में पिज्जा संस्कृति में गेंहू को कौडी के मोल में खरीदा जा रहा है। गाँव का छोटा किसान अभी इतना सक्षम नही हुआ है कि अपना साधन लेकर शहर की मंडियों में जा सके।

ऐसी तस्वीर एक मेरे गाँव की नहीं हजारों-हजार गांवों की है। एक बुन्देलखण्ड में ही नहीं देश के तमाम हिस्से में यही स्थिति है। किसानों की सुध लेने वाला कोई भी नहीं है, सब अपने-अपने शेयर के उठने-गिरने में लगे हैं। कोई अभी सास-बहू सीरियलों की तड़क-भड़क में अपनी तृष्णा को मिटा रहा है। कोई कारों के मंहगे विज्ञापन देखकर ही अपने घूमने का मजा ले रहा है। फ़िर सोचिये कितनों के पास है ये स्थिति, कितनी नारियाँ हैं ऐसी जो हमें दिखाई जा रहीं हैं?

हमेशा हमने पढ़ा है, सुना है कि भारत गांवों में बसता है। अब गांवों में जाकर लगता है कि हो सकता है भारत गांवों में बसता हो पर आज के भारत (इंडिया) में गाँव नहीं बसता है।

1 टिप्पणी:

  1. यह तड़क भड़क वाला वर्ग भारत की छ्बी की विंडो ड्रेसिंग है बाहर दिखाने के लिए.असल भारत याने इंडिया वाले के लिए अभी बहुत लंबा सफर बाकी है.

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