देश भर में संचालित अनेक परीक्षा-संगठनों के परीक्षा परिणाम
घोषित किये गए. अनेकानेक बच्चों ने सफलता प्राप्त की. खबरों में बच्चों के चहकने
के, परिजनों संग, शिक्षकों संग उनके चित्र
लगातार सुर्ख़ियों में रहे. कोई इंजीनियर, कोई चिकित्सक, कोई प्रशासनिक अधिकारी, कोई
वैज्ञानिक बनना चाहता है. हँसते-मुस्कुराते बच्चों के उत्साह को देखकर मन झूम जाता
है. देश के उन्नत भविष्य का चित्र आँखों के सामने उभरता है. भावी पीढ़ी के विकासपरक
राह पर बढ़ते रहने की आशा जागती है. इसी आशा और उन्नत भविष्य के साए में कुछ काली
परछाइयाँ भीतर ही भीतर डरा जाती हैं. सुनहरे भविष्य की तस्वीर में कुछ धुंधलका सा
लाती दिख जाती हैं. खुशियों के बीच ये काली परछाइयाँ बच्चों के आत्महत्या कर लेने
की हैं. अपने परीक्षा परिणामों के प्रति सशंकित अनेक विद्यार्थियों द्वारा अपने
जीवन को समाप्त कर लिया जाता है. किसी ने गले में फंदा डाल लिया तो किसी ने जहर
खाकर जान दे दी. हँसते-खेलते बच्चों का यूँ सशंकित होकर असमय चले जाना मन को
व्यथित करता है. परीक्षाओं में प्राप्तांकों के कम आने की शंका, कम अंक आने से
भविष्य की राह के न मिलने के भय से, प्रवीणता सूची में न आ पाने के कारण अभिभावकों
के सपने पूरे न कर पाने की निराशा का बोध बच्चों को मृत्यु की तरफ ले जाता है.
किसी भी परिवार के लिए उसके किसी भी सदस्य का चले जाना
कष्टकारी होता है. ये कष्ट उस समय और भी विभीषक हो जाता है जबकि ऐसा किसी बच्चे के
साथ हुआ हो. बच्चों द्वारा सिर्फ असफलता के भय से अथवा कुछ प्रतिशत अंक कम आने के
चलते मौत की राह चले जाना समूची व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है. इक्कीसवीं सदी
में जहाँ एक तरफ अधिकारों की, स्वतंत्रता की, फ्री सेक्स की, हैप्पी टू ब्लीड की,
लिव-इन-रिलेशन आदि जैसी अतार्किक चर्चाओं में बुद्धिजीवियों से लेकर मीडिया तक
निमग्न रहती है वहाँ बच्चों पर लादे जाने वाले अनावश्यक, अप्रत्यक्ष बोझ को दूर
करने के लिए किसी तरह की चर्चा नहीं की जाती है. ये सम्पूर्ण समाज के लिए क्षोभ का
विषय होना चाहिए कि एक बच्चा जो महज कुछ प्रतिशत कम अंक आने के भय से अथवा कम अंक
आने के कारण मृत्यु का वरण कर लेता है.
समाज के विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न विषयों में अपनी सक्रियता दिखा रहे
समाजशास्त्री, मनोविज्ञानी इस दिशा में संज्ञाशून्य से बने नजर आ रहे हैं. घर से
लेकर स्कूल तक, अभिभावकों से लेकर शिक्षक तक सभी अपनी-अपनी मानसिकता का बोझ बच्चों
में मन-मष्तिष्क पर लाद दे रहे हैं. अपने अतृप्त सपनों को, अपने उस कैरियर को, जो
वे नहीं बना सके, बच्चों के माध्यम से पूरा करने पर जोर लगाये हैं. अपने बच्चों को
साक्षर, शिक्षित, संस्कारित बनाये जाने से ज्यादा ध्यान इस तरफ है कि वे कैसे अधिक
से अधिक अंकों से सफलता प्राप्त करें. वे बच्चों की शिक्षा की बुनियाद को मजबूत
करने के स्थान पर उनके मन में अधिकाधिक ‘पैकेज वाली जॉब’ को पाने का लालच भरने में
लगे हैं. इस लालच के वशीभूत, अभिभावकों, शिक्षकों के असफल अतीत को अपने भविष्य के
द्वारा पूरा करने के चक्कर में बच्चों द्वारा अपना वर्तमान दोषपूर्ण बना लिया जाता
है.
समय के साथ जैसे-जैसे तकनीक उन्नत हुई है, जैसे-जैसे विकास
की राह प्रशस्त हुई है वैसे-वैसे अभिभावकों की, शिक्षकों की महत्त्वाकांक्षाओं ने
भी अनियमित विकास किया है. इस अंधाधुंध विकास की दौड़ में उनके द्वारा बच्चों से न
सिर्फ अच्छे अंक लाने की जबरदस्ती की जा रही है वरन दूसरे बाकी बच्चों से गलाकाट
प्रतियोगिता सी करवाई जा रही है. बच्चों को आपस में सहयोग की, समन्वय की भावना
विकसित करने के स्थान पर आपस में चिर-प्रतिद्वंद्विता पैदा की जा रही है. स्वस्थ
प्रतिस्पर्धा के स्थान पर कटुता पैदा की जा रही है. ज्ञान को आपस में बाँटने की
जगह उसे अपने आपमें ही कैद करके रखने की धारणा का विकास किया जा रहा है. बच्चों को
किसी अन्य विद्यार्थी की असफलता के समय, उसकी आवश्यकता के समय उसकी मदद करने के
बजाय उससे दूर रहने, उससे बचने की सलाह दी जा रही है. समझने की बात है कि सिर्फ और
सिर्फ सफलता प्राप्त करने की शर्त के साथ-साथ बच्चों को किस तरह एकाकीपन के चंगुल
में बाँधा जा रहा है. अपने चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ सफलता प्राप्त करने का शोर,
दूसरे से आगे ही आगे बने रहने की होड़, किसी भी कीमत पर सबसे आगे आने और फिर सदैव
आगे ही बने रहने का दबाव बच्चों को भीतर से खोखला बना रहा है. उनका यही खोखलापन
उनकी असफलता में या फिर असफलता की आशंका में उन्हें सबसे दूर कर देता है. एक पल को
इस स्थिति पर विचार करिए कि महज चंद अंकों के कारण एक हँसता-खेलता बच्चा सदैव के
लिए खामोश हो जाये. विचार करिए उस बच्चे के अन्दर भय का, अविश्वास का वातावरण किस
कदर भर गया होगा जो कम अंक आने के भय से दुनिया छोड़ देता है मगर परीक्षा परिणाम
आने पर सर्वाधिक अंकों से सफलता प्राप्त करता है.
आज तकनीकी विकास के दौर में, ज्ञान की बहुलता के दौर में,
उत्कृष्टता दिखाने के दौर में यदि कठिन श्रम, उच्च शिक्षा, अधिकतम अंक मजबूरी बन
गए हों तो इस मजबूरी को और मजबूत करने के बजाय उसे दूर करने की आवश्यकता है.
बच्चों को विश्वास में लेने की जरूरत है. उनके भीतर से खोखलापन हटाकर आत्मविश्वास भरने
की जरूरत है. उन पर अनावश्यक दवाब बनाकर उनके जीवन को असमय समाप्त करने के स्थान
पर उनको खिलखिलाते रहने के अवसर प्रदान करने की आवश्यकता है. अंकों की
प्रतिस्पर्धा के बजाय उनमें स्वावलंबन की, संगठन की, समन्वय की भावना का विकास
करने की जरूरत है. यदि हम आने वाले समय में ऐसा कर पाए तो अवश्य ही विकास की राह
प्रशस्त कर पायेंगे, अन्यथा कष्ट तो दिनों-दिन बढ़ते ही जाना है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें