जाति व्यवस्था को
एक सिरे से समाज की घनघोर बुराई बताने वालों की कमी नहीं है. समय-समय पर इसको दूर
करने के सम्बन्ध में बुद्धिजीवियों, राजनैतिक लोगों द्वारा सुझाव भी दिए जाते रहे
हैं. बहुतेरे लोगों ने जाति के स्थान पर भारतीय लिखने की, किसी ने मानव लिखने की,
किसी ने हिन्दुस्तानी लिखने तक की वकालत की. बहुत से संवेदनशील लोगों ने ऐसा करना
शुरू भी किया. उन्होंने अपने नाम के साथ जाति के स्थान पर ऐसे ही शब्दों को लिखना
शुरू किया. समाज को जाति-मुक्त बनाने का काम करना शुरू किया. समाज ने ऐसे लोगों को
प्राथमिकता में नहीं लिया और न ही उनकी सोच को वरीयता दी. परिणाम ये हुआ कि ऐसे
लोगों के प्रयास इन्हीं लोगों तक अथवा इनके परिवार तक ही सीमित रह गए. परिवर्तन के
इस अल्प-दौर में शायद कुछ परिवर्तन होता भी किन्तु जिस तरह से राजनीति में जाति को
प्रमुखता दी गई, उसने जतिमुक्त समाज की अवधारणा को पूरी तरह से समाप्त कर दिया. एकबारगी
समाज का जतिमुक्त होना बहुत सुखद संकल्पना लगती है. सबका जातिविहीन होकर सम्मिलित
रूप में रहना सुहाना महसूस होता है. इस सुखद संकल्पना, स्थिति में अब जातियों से
ज्यादा राजनीति समस्या बनती नजर आ रही है.
जातिगत आधार पर
संचालित होती राजनीति के चलते अब नीति-नियंता भी नहीं चाहते हैं कि समाज जातिमुक्त
स्वरूप में दिखे. उनके लिए समाज का जातियों में विभक्त रहना लाभकारी सौदा हो गया
है. यही कारण है कि अब चुनावों के दौरान लगभग सभी दलों द्वारा जातिगत आधार को
ध्यान में रखते हुए टिकट का बँटवारा किया जाता है. उनके लिए उनके कर्मठ
कार्यकर्ताओं, उनके समर्पित व्यक्तियों से अधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति वो होता है
जिसकी उसके क्षेत्र में निवास कर रही जातियों में बहुलता हो. राजनैतिक दलों के लिए
योजनाओं का, बजट का क्रियान्वयन भी इस तरह से किया जाता है कि वे एक क्षेत्र-विशेष
की जाति-विशेष के लिए लाभकारी हों. जाति को आधार बनाकर की जा रही राजनीति के चलते
ही चुनावों के समय बहुसंख्यक प्रत्याशियों द्वारा अपनी जाति को प्रमुखता से
दर्शाया जाता है. उसके पीछे उनका मूल उद्देश्य अपनी जाति के लोगों को आकर्षित करना
होता है. ऐसी मानसिकता के बीच अनेक राजनैतिक दलों द्वारा समाज के सामान्य वर्ग
अथवा सवर्ण वर्ग पर आरोप लगाया जाता है कि ये मनुवादी समाज में जातिभेद को फ़ैलाने
में लगे हुए हैं. दलितों, पिछड़ों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं.
ये समझ से परे है
कि उच्च सदन, निम्न सदन, प्रदेशों के सदनों में बैठे तमाम महानुभाव अपने वेतन
वृद्धि के लिए किसी के मोहताज नहीं रहते. अपनी जनता की राय का अनुपालन नहीं करते.
उनकी भावनाओं का ख्याल नहीं रखते हैं. वे लोग जो किसी भी तरह की नीति को बनाकर
जनता पर थोपा जाना सा पसंद करते हैं, वे जातिमुक्त समाज के लिए कोई नियम-कानून
पारित क्यों नहीं कर देते? समाज में सामान्य सी धारणा बनी हुई है कि शिक्षा के
द्वारा जातिव्यवस्था को दूर किया जा सकता है. इसके ठीक उलट देखने में आ रहा है कि समाज
जिस तेजी से शिक्षित हो रहा है, जिस तेजी से तकनीकी रूप से समृद्ध हो रहा है, उसी
तेजी से जातिगत बंधनों में बँधता जा रहा है. दलित, पिछड़े वर्गों से उन्नति करके,
शिक्षित होकर सामने आये लोगों में भी उसी तरह का अहंकार देखने को मिल रहा है जैसा
कि सवर्णों के लिए कहा जाता है. ऐसे वर्गों के संपन्न, सक्षम लोगों में सवर्ण वर्ग
के लिए उसी तरह का विद्वेष देखने को मिल रहा है जैसा कि सवर्णों के मन में होना बताया जाता है.
स्पष्ट है कि जातिगत व्यवस्था को दूर करने के लिए जातिगत विद्वेष फ़ैलाने से काम
नहीं बनेगा. आरक्षण की बैशाखी के माध्यम से राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास करते
लोगों के मन में अपनी जातियों के विकास की भावना से अधिक भावना सवर्णों के खिलाफ
माहौल बनाने की है. इसके लिए वे जातिगत विभेद को किसी भी रूप में समाप्त नहीं करना
चाहते हैं. जातिगत विभेद के द्वारा राजनैतिक दल जहाँ अपनी रोटियाँ सेंकने में लगे
हैं वहीं इसके द्वारा जातिगत ठेकेदार अपने-अपने उल्लू सीधे करने में लगे हुए हैं.
जाति को समाज का नासूर बताने वाले ही समय-समय पर उसे कुरेदकर ज़ख्मों को हरा किये
रहते हैं. आखिर जाति का जिंदा रहना उनके लिए ही लाभकारी सौदा है.
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चित्र गूगल छवियों से साभार
सटीक ।
जवाब देंहटाएंजातिवाद को हमारी सरकार ही बढावा देती रहती है। हर फॉर्म में जाति कॉलम जरूर होता है। पिछडी जाति के जरूरत मंद लोग अब भी आरक्षण की सुविधा से वंचित रहते हैं क्यूं किसधन घरों के बच्चों को भी शिक्षा या नोकरी में अब भी आरक्षण मिलता है।
जवाब देंहटाएंफूट डालो राज करो वाली मानसिकता जायेगी कैसे?
जवाब देंहटाएंयह विभेदकारी जातिप्रथा, वर्णव्यवस्था की ही उपज है। वर्णप्रथा शास्त्रो से पोषित है। शास्त्रो को भागवत माना जाता है। जातिप्रथा केवल कार्यो क् बटवारा नहीं है, यदि ऐसा होता तो समाज मे साफ सफाई का कठिन कार्य करने वाली जातियाँ उच्च जाति होतीं। जब तक शास्त्रो को भागवत मानने का कार्य बंद नहीं होगा जाती प्रथा ऐसे ही दुखाती रहेगी।
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