12 जुलाई 2015

स्वतंत्रता, सेक्स, जीवन, जीवन-मूल्य



ये अपने आपमें एक परम सत्य है कि सेक्स किसी भी जीव की नैसर्गिक आवश्यकता है. न केवल इंसानों में वरन जानवरों में भी इसको देखा गया है. कहा तो ये भी जाता है कि पेड़-पौधों में भी आपस में निषेचन क्रिया संपन्न होती है, जो एक तरह से सेक्स का ही स्वरूप है. बहरहाल, जिस तरह से मानव समाज के विकास की स्थितियाँ बन रही हैं, विकसित हो रही हैं, उनके साथ-साथ सेक्स सम्बन्धी समस्याओं में, दुराचार की घटनाओं में भी वृद्धि देखने को मिली है. प्राकृतिक सेक्स संबंधों के साथ-साथ समाज में अप्राकृतिक सेक्स संबंधों के बनाये जाने की खबरें भी सामने आ रही हैं. देखा जाये तो कहीं न कहीं समलैंगिकता भी अप्राकृतिक शारीरिक सम्बन्ध ही है मगर जैसे-जैसे इसके विरोध की बात सामने आती है वैसे-वैसे ही इसके समर्थन में भी प्रदर्शन किये जाने लगते हैं. अदालतों ने भी इन संबंधों के प्रति उदार रवैया अपनाते हुए कानूनी तौर पर समलिंगियों को पर्याप्त राहत प्रदान की है. समलैंगिकता के विरोधी जहाँ भारतीय संस्कृति में इस तरह के सम्बन्ध न बनाये जाने की वकालत करते हैं वहीं इसके समर्थक इसे अपना अधिकार, अपनी जीवनशैली की स्वतंत्रता मानते हैं.
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आखिरकार यहाँ समझना ही होगा कि स्वतंत्रता है क्या? जीवनशैली आखिर किस तरह से संचालित की जाये? इसे भी समझने की जरूरत है कि कहीं जीवनशैली की स्वतंत्रता के नाम पर, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर व्यक्ति सेक्स संबंधों में स्वतंत्रता तो नहीं चाह रहा है? कहीं स्वतंत्रता के नाम पर सेक्स को समाज में कथित तौर पर स्थापित करने की साजिश तो नहीं? सेक्स को लेकर, शारीरिक संबंधों को लेकर, विपरीतलिंग को लेकर समाज में जिस तरह से अवधारणा निर्मित की जा रही है, उसे देखते हुए लगता है जैसे इंसान के जीवन का मूलमंत्र सिर्फ और सिर्फ सेक्स रह गया है. आपसी वार्तालाप में, मित्रों-सहयोगियों के हास-परिहास में बहुधा सेक्स, विपरीतलिंगी चर्चा के केंद्रबिंदु बने होते हैं. दृश्य-श्रव्य माध्यमों में प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों, विज्ञापनों में भी सेक्स का प्रस्तुतीकरण इस तरह से किया जाता है जैसे बिना इसके इंसान का जीवन अधूरा है. समस्या यहीं आकर आरम्भ होती है क्योंकि प्रस्तुतीकरण के नाम पर फूहड़ता का प्रदर्शन ज्यादा किया जाता है; दैहिक संतुष्टि के नाम पर जबरन सम्बन्ध बनाये जाने की कोशिश की जाती है; प्यार के नाम पर एकतरफा अतिक्रमण किया जाता है; स्वतंत्रता के नाम पर रिश्तों का, मर्यादा का दोहन किया जाता है. सोचना होगा कि कल को वे मानसिक विकृत लोग, जो दैहिक पूर्ति के लिए जानवरों तक को नहीं बख्शते हैं, अपने अप्राकृतिक यौन-संबंधों को जायज ठहराने के लिए सडकों पर उतर आयें, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर, जीवनशैली चुनने की स्वतंत्रता के नाम पर किसी भी जानवर के साथ को कानूनी स्वरूप दिए जाने की माँग करने लगें तो क्या ऐसे लोगों की मांगों को स्वीकारना होगा?
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जिस तरह से इक्कीसवीं शताब्दी के नाम पर उत्पादों, विचारों, खबरों, कार्यक्रमों, भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया गया है उसमें इंसान की वैयक्तिक भावनाओं को ज्यादा महत्त्व प्रदान किया गया है. उसके लिए सामूहिकता, सामाजिकता, सहयोगात्मकता आदि को दोयम दर्जे का सिद्ध करके बताया गया है, व्यक्ति की नितांत निजी स्वतंत्रता को प्रमुखता प्रदान की गई है, ये कहीं न कहीं सामाजिक विखंडन जैसी स्थिति है. पाश्चात्य जीवनशैली को आधार बनाकर जिस तरह से भारतीय जीवनशैली में दरार पैदा की गई है वह भविष्य के लिए घातक है. इसके दुष्परिणाम हमें आज, अभी देखने को मिल रहे हैं. जिस उम्र में बच्चों को अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए वे रोमांस में घिरे हुए हैं; जिस क्षण का उपयोग उन्हें अपना कैरियर बनाने के लिए करना चाहिए उन क्षणों को वे शारीरिक सुख प्राप्त करने में व्यतीत कर रहे हैं; जो समय उनको ज्ञानार्जन के लिए मिला है उस समय में वे अविवाहित मातृत्व से निपटने के उपाय खोज रहे हैं. कई-कई बार ये आश्चर्य का विषय ज्ञात होता है कि जिस भारतीय संस्कृति पर हम और हमारा देश गर्व करता है, उसकी सार्थक मीमांसा, उसके सकारात्मक चिंतन, उसकी सामाजिक उपयोगिता के बारे में हमें कोई विदेशी आकर आगाह करता है. हमारे देश की जिस पीढ़ी को इस तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए वो सेक्स, समलैंगिकता, अविवाहित मातृत्व, विवाहपूर्व शारीरिक सम्बन्ध, सुरक्षित सेक्स आदि की मीमांसा, चिंतन करने में लगा हुआ है. संभव है कि ऐसे लोगों के सामने भारतीय संस्कृति का कोई व्यापक अथवा सकारात्मक अर्थ ही न हो क्योंकि इस पीढ़ी ने मुख्य रूप से दैहिक सम्बन्धों की चर्चा अपने आसपास होते देखी है. यहाँ आकर समझना होगा कि सेक्स, शारीरिक सम्बन्धों के मामले में नितांत खुला जीवन जीने वाले पाश्चात्य देशवासी भी कहीं न कहीं संयमित भारतीय जीवनशैली के प्रति आकर्षित हो रहे हैं. सेक्स को, दैहिक तृष्णा को एकमात्र उद्देश्य मानकर आगे बढ़ती पीढ़ी न केवल सामाजिकता का ध्वंस कर रही है बल्कि स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ भुलाकर समाज में एक दूसरे तरह की गुलामी को जन्म दे रही है. काश! स्वतंत्रता के नाम पर अधिकारों को समझा जाए न कि अनाधिकार चेष्टा को; काश! वैयक्तिक जीवनशैली के नाम पर रिश्तों की मर्यादा को जाना जाए न कि उनके अमर्यादित किये जाने को; काश! निजी जिंदगी के गुजारने के नाम पर पारिवारिक सौहार्द्र को समझा जाए न कि जीवन-मूल्यों के ध्वंस को; काश! जीवन को जीवन की सार्थकता के नाम पर समझा जाये न कि कुंठित सेक्स भावना के नाम पर. काश....!!!

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