21 जुलाई 2013

आय से अधिक संपत्ति मामलों में न्यायालय हस्तक्षेप करे




राजनैतिक गलियारों में एक कथित डील होने की खबर मीडिया के माध्यम से निकल कर सामने आई और एक चर्चा छिड़ गई. नेताजी ने किसी भी तरह की डील न होने के संकेत दिए किन्तु केंद्र सरकार के कदमों से ऐसी-वैसी डील होने जैसे संकेत मिले. बहरहाल सत्य क्या है ये तो डील करने वाले और उसका लाभ लेने वाले ही समझ-समझा सकते हैं किन्तु इस कथित डील के पार्श्व से जो चर्चा उठी उसने जाने-अनजाने कुछ सवालों को सामने रखा, कुछ स्थितियों को निर्मित कर प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया. स्थितियां, समस्या, सवाल इस कथित डील से इतर हैं और जो अक्सर, गाहे-बगाहे हम सभी के सामने उपस्थित हो जाते हैं. आये दिन समाचार आता है कि फलां राजनीतिज्ञ पर, फलां मंत्री पर आय से अधिक संपत्ति का आरोप, केस दर्ज, जाँच प्रारम्भ. तब लगता है कि शायद राजनीति को धन पैदा करने का मैदान समझने वालों पर अंकुश लगेगा, उनकी मानसिकता में कुछ सुधार होगा. कुछ समय इस खुशफहमी में गुजरता है और एक दिन सारी खुशफहमी दूर हो जाती है जब पुनः समाचार मिलता है कि फलां राजनेता, मंत्री आय से अधिक संपत्ति के मामले में बरी. ऐसे में लगता है कि प्रथम तो इस तरह का मामला बनाया ही क्यों गया और जब बनाया गया तो किस कारण से सम्बंधित व्यक्ति को ऐसे आरोप से मुक्त कर दिया गया?
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ये सत्यता किसी से भी छिपी नहीं रह गई है कि एक बार किसी भी व्यक्ति का राजनीति में प्रवेश हो भर जाए फिर वो कुछ ही दिनों, महीनों में (यहाँ वर्षों का इंतज़ार नहीं करना होता है) अकूत संपत्ति का मालिक हो जाता है. इस सत्य के साथ ये भी सत्य साथ चिपका होता है कि उस सम्बंधित व्यक्ति का न तो कोई छोटा-बड़ा कारोबार चल रहा होता है, न ही किसी तरह की बहुराष्ट्रीय कंपनी का पैकेज उसके साथ होता है, न ही किसी कंपनी-मिल-कारखाने का मालिक होता है, कृषि-योग्य भूमि भी इतनी नहीं होती है कि उसके द्वारा लाखों-करोड़ों रुपयों को पैदा किया जा सके. और एक बारगी बिना किसी पूर्वाग्रह के ये मान भी लिया जाये कि सम्बंधित व्यक्ति उक्त स्थितियों में किसी भी स्थिति को पूर्ण करता था तो वह राजनीति में प्रवेश के पूर्व इतनी अकूत संपत्ति का मालिक क्यों नहीं था? कहीं न कहीं ये सन्देश आसानी से जगजाहिर होता है कि जो भी संपत्ति उस व्यक्ति के द्वारा बनाई गई है वो सिर्फ और सिर्फ राजनीति का सुफल है. इस कथित सत्य के साथ एक सत्य राजनैतिक स्वार्थ-पूर्ति करता दिखता है और वो है आय से अधिक संपत्ति का मामला बनाकर सम्बंधित राजनैतिक व्यक्ति, राजनैतिक दल में सीबीआई का डर पैदा करना. देखा जाये तो वर्तमान में जितने राजनैतिक व्यक्तियों पर इस तरह के आरोप लगाये गए हैं वे सब के सब अंत में किसी न किसी कथित डील (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष) के बाद ही आरोप-मुक्त हो सके हैं.
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ऐसी स्थितियों से समाज में एक तरह का निराशाजनक माहौल बनता है. एक तरफ ऐसे लोग हैं जो बिना किसी कारोबार, कारखाने, नौकरी के लाखों-करोड़ों रुपये की संपत्ति के मालिक हैं और दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो अनथक मेहनत के बाद भी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाने में असफल रहते हैं. एक तरफ ऐसे सत्तासम्पन्न व्यक्ति हैं जो अकारण अकूत संपत्ति के मालिक होने के बाद भी न तो आयकर विभाग के लपेटे में आते हैं, न ही सरकारों के और न ही जाँच-एजेंसियों के झमेले में फंसते हैं और दूसरी तरफ वे लोग भी हैं जो अपने पसीने की कमाई से ही मकान-दुकान-कार लेने के चक्कर में आये दिन सरकार, आयकर, जाँच-एजेंसियों के सवालों का जवाब देते-देते टूट जाते हैं. आये दिन सरकार की तरफ से आरोपी बनाने का, जाँच करवाने का तय ड्रामा किया जाता है और उसका पटाक्षेप भी मनमर्जी से कर दिया जाता है, शायद ही कोई मामला ऐसा रहा हो जिसमें राजनैतिक व्यक्ति को आय से अधिक संपत्ति मामले में किसी तरह की सजा हुई हो.
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वर्तमान में माननीय न्यायालय ने अपनी सक्रियता से बहुत से मामलों में जनहित का ध्यान रखा गया है; अपने आदेश-निर्देशानुसार तमाम सारी विसंगतियों को दूर करने का रास्ता सुझाया है; राजनीति के अपराधीकरण को रोकने हेतु, स्वच्छ राजनैतिक वातावरण बनाने के प्रति भी सकारात्मक कदम उठाये हैं. ऐसे में जबकि न्यायालय सकारात्मक रूप से देश-हित में राजनैतिक विसंगतियों को दूर करने का काम कर रहे हैं तब ऐसी अपेक्षा आय से अधिक संपत्ति के मामलों में भी जा सकती है. माननीय न्यायालयों को स्वतः इस तरह के मामलों में संज्ञान लेते हुए जाँच करवाई जानी चाहिए, आरोप तय करके मुकदमों को चलाया जाना चाहिए. जब कार्यपालिका, विधायिका अपना काम सही से नहीं करे और स्वघोषित चौथा स्तम्भ ‘मीडिया’ भी चापलूसी सी करता दिखे तो फिर न्यायपालिका को ही आगे आना चाहिए. आखिर अव्यवस्थित, भ्रष्ट, तानाशाहात्मक, राजशाही व्यवस्था से त्रस्त नागरिकों का न्यायालयों से ऐसी अपेक्षा रखना कतई गलत नहीं कहा जा सकता है.
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