हालात दिन प्रतिदिन
बिगड़ते ही दिख रहे हैं, जनप्रतिनिधि हर पल निरंकुश नज़र आ रहे हैं, सत्ताधारी
निर्लज्ज से समझ आते हैं, विपक्ष गुमसुम सा दिखाई देता है, जनता
बदहाल-परेशान-विक्षिप्त लगती है.....ये किसी एक नगर के, किसी एक राज्य के हालात
नहीं वरन समूचे देश के हैं. किसी एक क्षेत्र में नहीं, किसी एक व्यक्ति के द्वारा
नहीं, किसी एक संस्था-संगठन के द्वारा नहीं बल्कि प्रत्येक जिम्मेवार पद के द्वारा
ऐसा किया जा रहा है. देश के हालात का आज जो अव्यवस्थित रूप है, वर्तमान
सरकार-विपक्ष का आज जो स्वरूप है, जनप्रतिनिधियों के जो रंग-ढंग हैं, सरकारी
पदासीन लोगों का जो रवैया है वो सिर्फ और सिर्फ बदतर हालात की तरफ इशारा करता है.
आज़ादी के पहले का तो नहीं किन्तु शायद आज़ादी के बाद का ये सबसे बदहाल दौर चल रहा
है, जिसमें कोई भी अपनी जिम्मेवारी के प्रति सचेत नहीं दीखता है. जो स्थिति आज है
उसको देखकर ऐसा लगता है जैसे सभी के लिए भ्रष्टाचार करना अनिवार्य हो गया है,
घोटाले करना जन्मसिद्ध अधिकार बन गया है, किसी के हक़ को मार जाना कर्तव्य हो गया
है.
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गली-मोहल्ले में,
नुक्कड़ों पर, पान-चाय की दुकानों पर बहुतायत में लोग देश के ऐसे हालातों पर चर्चा
करते मिल जायेंगे. घूम फिर कर नेताओं-मंत्रियों-अधिकारीयों के कुकृत्यों की निंदा
की जाएगी, उनके कार्यों की भर्त्सना की जाएगी और कहीं न कहीं देश में एक क्रांति
की सम्भावना व्यक्त की जाएगी. सिर्फ और सिर्फ बातों के बताशे फोड़ने वाले ऐसे लोग
क्रांति के, परिवर्तन के, गृह-युद्ध जैसे हालातों की पूरी रूपरेखा तैयार कर देते
हैं..उसके क्रियान्वयन की आधारशिला रख लेते हैं और वापस अपने-अपने घरों में लौट
जाते हैं. हो सकता है जो हालात देश के हैं वे किसी न किसी क्रांति की सम्भावना को
पैदा करते हों..किसी रूप में गृह-युद्ध के हालातों को बनाते हों किन्तु इसके बाद
भी पूरे विश्वास से कहा जा सकता है कि देश में न तो कोई क्रांति होनी है...न ही
किसी तरह के गृह-युद्ध की सम्भावना है. इसका कारण ये है कि क्रांतियाँ, परिवर्तन, गृह-युद्ध
जैसी स्थितियों का सूत्रपात कभी भी, किसी भी कालखंड में नपुंसकों द्वारा नहीं हुआ
है, सुसुप्त जातियों द्वारा नहीं हुआ है, स्वार्थ में लिपटे लोगों द्वारा नहीं हुआ
है, क्षुद्र मानसिकता वालों ने ऐसा नहीं किया है.
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हो सकता है कि सोशल
साइट्स पर, पान-चाय की दुकानों पर, बुद्धिभोगियों की गोष्ठी में, किसी किटी पार्टी
में, किसी कॉकटेल पार्टी में अपनी विद्वता झाड़ते लोगों को ये बुरा लगे, नागवार
गुजरे किन्तु ये सत्य है..आज का यही सत्य है. किस आधार पर हम क्रांति की बात करते
हैं, परिवर्तन की बात करते हैं? चंद मोमबत्तियां जलाकर....जुलूस निकाल कर....मंत्रियों-सांसदों
का घेराव कर....सड़क जाम कर....संपत्ति को आग लगाकर....? ये कुछ सांकेतिक स्वरूप
हैं और इनके आधार पर परिवर्तन संभव ही नहीं. जिस देश में बच्चियां यौन शोषण का
शिकार हो रही हैं, जहाँ वर्दीधारी खुलेआम लाठी भांजने से नहीं चूकते हैं, जहाँ
रिश्तों में मर्यादा नाम की कोई चीज नहीं रह गई हो, जहाँ सरकार निर्लज्जता पर पूरी
तरह उतारू हो, जहाँ विपक्ष सिर्फ अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग वाले रूप में हो,
जहाँ स्वयंभू लोकतान्त्रिक चौथा खम्बा ‘पत्रकारिता’ संज्ञाशून्य हो.......उफ़!!!
जहाँ सिर्फ अव्यवस्था ही अव्यवस्था हो वहां जनता चंद दिनों का आक्रोश दिखाकर, कुछ
दिनों का विरोध जताकर खामोश हो जाये....जहाँ जनता के छोटे रूप में जागने के बाद भी
भ्रष्टाचारियों में डर न जागे, जनता के क्षणिक आक्रोश के बाद भी अत्याचारियों में
भय व्याप्त न हो, जनता की जलाई मोमबत्तियों से अँधेरा न मिटे तो समझ लेना चाहिए कि
अभी क्रांति बहुत दूर है...अभी परिवर्तन बहुत दूर है. साथ ही ये भी स्मरण रहना
चाहिए कि समूचे विश्व में क्रांति कभी भी नपुंसक जातियों-प्रजातियों ने नहीं की
है.
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन एक रोटी की कहानी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया व् विचारणीय आलेख....
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